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भक्तामर स्तोत्र संस्कृत और हिंदी में | Bhaktamar Stotra In Sanskrit/Hindi

श्री भक्तामर स्तोत्र जैन समुदाय का सबसे प्रसिद्ध स्तोत्र है। जिसे सातवीं शताब्दी में आचार्य मानतुंगा द्वारा 48 श्लोकों के रूप में लिखा गया था। यहाँ इन्ही श्लोकों को संस्कृत और हिंदी भाषा में अर्थ सहित बताया है।

भक्तामर स्तोत्र संस्कृत PDF | Bhaktamar Stotra PDF In Sanskrit

कहा जाता है Bhaktamar Stotra का नित्य पाठ करने पर कैंसर जैसी गंभीर बीमारी से राहत मिलती है। साथ ही यह डायबिटीज और शुगर सम्बंधित बिमारियों के लिए भी लाभकारी है।

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विशेष : कुल मिला कर यह मनुष्य के लिए एक रक्षा कवच की तरह काम करता है।

भक्तामर स्तोत्र संस्कृत PDF Download

यहाँ संपूर्ण Bhaktamar Stotra की PDF Download लिंक दी है। जिससे आप इस स्तोत्र को अपने मोबाइल या लैपटॉप में सेव रख सकते है।

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PDF Name Bhaktamar Stotra
Total Pages 9
PDF Size 75 KB
File Maker Unknown
Location Google Drive
Provider Sabsastaa

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भक्तामर स्तोत्र लिरिक्स संस्कृत में

यहाँ सर्वप्रथम भक्तामर स्तोत्र के लिरिक्स को मुख्य संस्कृत भाषा में दर्शाया है। फिर हिंदी भाषा में सरल अनुवाद के साथ संपूर्ण स्तोत्र को समझाया है।

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भक्तामर – प्रणत – मौलि – मणि -प्रभाणा-
मुद्योतकं दलित – पाप – तमो – वितानम्।
सम्यक् -प्रणम्य जिन – पाद – युगं युगादा-
वालम्बनं भव – जले पततां जनानाम्।। 1॥

य: संस्तुत: सकल – वाङ् मय – तत्त्व-बोधा-
दुद्भूत-बुद्धि – पटुभि: सुर – लोक – नाथै:।
स्तोत्रैर्जगत्- त्रितय – चित्त – हरैरुदारै:,
स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम्॥ 2॥

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बुद्ध्या विनापि विबुधार्चित – पाद – पीठ!
स्तोतुं समुद्यत – मतिर्विगत – त्रपोऽहम्।
बालं विहाय जल-संस्थित-मिन्दु-बिम्ब-
मन्य: क इच्छति जन: सहसा ग्रहीतुम् ॥ 3॥

वक्तुं गुणान्गुण -समुद्र ! शशाङ्क-कान्तान्,
कस्ते क्षम: सुर – गुरु-प्रतिमोऽपि बुद्ध्या ।
कल्पान्त -काल – पवनोद्धत- नक्र- चक्रं ,
को वा तरीतुमलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम्॥ 4॥

सोऽहं तथापि तव भक्ति – वशान्मुनीश!
कर्तुं स्तवं विगत – शक्ति – रपि प्रवृत्त:।
प्रीत्यात्म – वीर्य – मविचार्य मृगी मृगेन्द्रम्
नाभ्येति किं निज-शिशो: परिपालनार्थम्॥ 5॥

अल्प- श्रुतं श्रुतवतां परिहास-धाम,
त्वद्-भक्तिरेव मुखरी-कुरुते बलान्माम् ।
यत्कोकिल: किल मधौ मधुरं विरौति,
तच्चाम्र -चारु -कलिका-निकरैक -हेतु:॥ 6॥

त्वत्संस्तवेन भव – सन्तति-सन्निबद्धं,
पापं क्षणात्क्षयमुपैति शरीरभाजाम् ।
आक्रान्त – लोक – मलि -नील-मशेष-माशु,
सूर्यांशु- भिन्न-मिव शार्वर-मन्धकारम्॥ 7॥

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मत्वेति नाथ! तव संस्तवनं मयेद, –
मारभ्यते तनु- धियापि तव प्रभावात् ।
चेतो हरिष्यति सतां नलिनी-दलेषु,
मुक्ता-फल – द्युति-मुपैति ननूद-बिन्दु:॥ 8॥

आस्तां तव स्तवन- मस्त-समस्त-दोषं,
त्वत्सङ्कथाऽपि जगतां दुरितानि हन्ति ।
दूरे सहस्रकिरण: कुरुते प्रभैव,
पद्माकरेषु जलजानि विकासभाञ्जि ॥ 9॥

नात्यद्-भुतं भुवन – भूषण ! भूूत-नाथ!
भूतैर्गुणैर्भुवि भवन्त – मभिष्टुवन्त:।
तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं वा
भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति ॥ 10॥

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दृष्ट्वा भवन्त मनिमेष – विलोकनीयं,
नान्यत्र – तोष- मुपयाति जनस्य चक्षु:।
पीत्वा पय: शशिकर – द्युति – दुग्ध-सिन्धो:,
क्षारं जलं जलनिधेरसितुं क इच्छेत्?॥ 11॥

यै: शान्त-राग-रुचिभि: परमाणुभिस्-त्वं,
निर्मापितस्- त्रि-भुवनैक – ललाम-भूत !
तावन्त एव खलु तेऽप्यणव: पृथिव्यां,
यत्ते समान- मपरं न हि रूप-मस्ति॥ 12॥

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वक्त्रं क्व ते सुर-नरोरग-नेत्र-हारि,
नि:शेष- निर्जित – जगत्त्रितयोपमानम् ।
बिम्बं कलङ्क – मलिनं क्व निशाकरस्य,
यद्वासरे भवति पाण्डुपलाश-कल्पम्॥13॥

सम्पूर्ण- मण्डल-शशाङ्क – कला-कलाप-
शुभ्रा गुणास् – त्रि-भुवनं तव लङ्घयन्ति।
ये संश्रितास् – त्रि-जगदीश्वरनाथ-मेकं,
कस्तान् निवारयति सञ्चरतो यथेष्टम्॥ 14॥

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चित्रं – किमत्र यदि ते त्रिदशाङ्ग-नाभिर्-
नीतं मनागपि मनो न विकार – मार्गम्।
कल्पान्त – काल – मरुता चलिताचलेन,
किं मन्दराद्रिशिखरं चलितं कदाचित्॥ 15॥

निर्धूम – वर्ति – रपवर्जित – तैल-पूर:,
कृत्स्नं जगत्त्रय – मिदं प्रकटीकरोषि।
गम्यो न जातु मरुतां चलिताचलानां,
दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ ! जगत्प्रकाश:॥ 16॥

नास्तं कदाचिदुपयासि न राहुगम्य:,
स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्- जगन्ति।
नाम्भोधरोदर – निरुद्ध – महा- प्रभाव:,
सूर्यातिशायि-महिमासि मुनीन्द्र! लोके॥ 17॥

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नित्योदयं दलित – मोह – महान्धकारं,
गम्यं न राहु – वदनस्य न वारिदानाम्।
विभ्राजते तव मुखाब्ज – मनल्पकान्ति,
विद्योतयज्-जगदपूर्व-शशाङ्क-बिम्बम्॥ 18॥

किं शर्वरीषु शशिनाह्नि विवस्वता वा,
युष्मन्मुखेन्दु- दलितेषु तम:सु नाथ!
निष्पन्न-शालि-वन-शालिनी जीव-लोके,
कार्यं कियज्जल-धरै-र्जल-भार-नमै्र:॥ 19॥

ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशं,
नैवं तथा हरि -हरादिषु नायकेषु।
तेजः स्फ़ुरन्मणिषु याति यथा महत्त्वं,
नैवं तु काच -शकले किरणाकुलेऽपि॥ 20॥

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मन्ये वरं हरि- हरादय एव दृष्टा,
दृष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति।
किं वीक्षितेन भवता भुवि येन नान्य:,
कश्चिन्मनो हरति नाथ ! भवान्तरेऽपि॥ 21॥

स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान्,
नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता।
सर्वा दिशो दधति भानि सहस्र-रश्मिं,
प्राच्येव दिग्जनयति स्फुरदंशु-जालम् ॥ 22॥

त्वामामनन्ति मुनय: परमं पुमांस-
मादित्य-वर्ण-ममलं तमस: पुरस्तात्।
त्वामेव सम्य – गुपलभ्य जयन्ति मृत्युं,
नान्य: शिव: शिवपदस्य मुनीन्द्र! पन्था:॥ 23॥

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त्वा-मव्ययं विभु-मचिन्त्य-मसंख्य-माद्यं,
ब्रह्माणमीश्वर – मनन्त – मनङ्ग – केतुम्।
योगीश्वरं विदित – योग-मनेक-मेकं,
ज्ञान-स्वरूप-ममलं प्रवदन्ति सन्त: ॥ 24॥

बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चित-बुद्धि-बोधात्,
त्वं शङ्करोऽसि भुवन-त्रय- शङ्करत्वात् ।
धातासि धीर! शिव-मार्ग विधेर्विधानाद्,
व्यक्तं त्वमेव भगवन् पुरुषोत्तमोऽसि॥ 25॥

तुभ्यं नमस् – त्रिभुवनार्ति – हराय नाथ!
तुभ्यं नम: क्षिति-तलामल -भूषणाय।
तुभ्यं नमस् – त्रिजगत: परमेश्वराय,
तुभ्यं नमो जिन! भवोदधि-शोषणाय॥ 26॥

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को विस्मयोऽत्र यदि नाम गुणै-रशेषैस्-
त्वं संश्रितो निरवकाशतया मुनीश !
दोषै – रुपात्त – विविधाश्रय-जात-गर्वै:,
स्वप्नान्तरेऽपि न कदाचिदपीक्षितोऽसि॥ 27॥

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उच्चै – रशोक- तरु – संश्रितमुन्मयूख –
माभाति रूपममलं भवतो नितान्तम्।
स्पष्टोल्लसत्-किरण-मस्त-तमो-वितानं,
बिम्बं रवेरिव पयोधर-पाश्र्ववर्ति॥ 28॥

सिंहासने मणि-मयूख-शिखा-विचित्रे,
विभ्राजते तव वपु: कनकावदातम्।
बिम्बं वियद्-विलस – दंशुलता-वितानं
तुङ्गोदयाद्रि-शिरसीव सहस्र-रश्मे: ॥ 29॥

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कुन्दावदात – चल – चामर-चारु-शोभं,
विभ्राजते तव वपु: कलधौत -कान्तम्।
उद्यच्छशाङ्क- शुचिनिर्झर – वारि -धार-
मुच्चैस्तटं सुरगिरेरिव शातकौम्भम् ॥ 30॥

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छत्र-त्रयं तव विभाति शशाङ्क- कान्त-
मुच्चै: स्थितं स्थगित-भानु-कर-प्रतापम्।
मुक्ता – फल – प्रकर – जाल-विवृद्ध-शोभं,
प्रख्यापयत्-त्रिजगत: परमेश्वरत्वम्॥ 31॥

गम्भीर – तार – रव-पूरित-दिग्विभागस्-
त्रैलोक्य – लोक -शुभ – सङ्गम -भूति-दक्ष:।
सद्धर्म -राज – जय – घोषण – घोषक: सन्,
खे दुन्दुभि-र्ध्वनति ते यशस: प्रवादी॥ 32॥

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मन्दार – सुन्दर – नमेरु – सुपारिजात-
सन्तानकादि – कुसुमोत्कर – वृष्टि-रुद्धा।
गन्धोद – बिन्दु- शुभ – मन्द – मरुत्प्रपाता,
दिव्या दिव: पतति ते वचसां ततिर्वा॥ 33॥

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शुम्भत्-प्रभा- वलय-भूरि-विभा-विभोस्ते,
लोक – त्रये – द्युतिमतां द्युति-माक्षिपन्ती।
प्रोद्यद्- दिवाकर-निरन्तर – भूरि -संख्या,
दीप्त्या जयत्यपि निशामपि सोमसौम्याम्॥34॥

स्वर्गापवर्ग – गम – मार्ग – विमार्गणेष्ट:,
सद्धर्म- तत्त्व – कथनैक – पटुस्-त्रिलोक्या:।
दिव्य-ध्वनि-र्भवति ते विशदार्थ-सर्व-
भाषास्वभाव-परिणाम-गुणै: प्रयोज्य:॥ 35॥

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उन्निद्र – हेम – नव – पङ्कज – पुञ्ज-कान्ती,
पर्युल्-लसन्-नख-मयूख-शिखाभिरामौ।
पादौ पदानि तव यत्र जिनेन्द्र ! धत्त:,
पद्मानि तत्र विबुधा: परिकल्पयन्ति॥ 36॥

इत्थं यथा तव विभूति- रभूज् – जिनेन्द्र !
धर्मोपदेशन – विधौ न तथा परस्य।
यादृक् – प्रभा दिनकृत: प्रहतान्धकारा,
तादृक्-कुतो ग्रहगणस्य विकासिनोऽपि॥ 37॥

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श्च्यो-तन्-मदाविल-विलोल-कपोल-मूल,
मत्त- भ्रमद्- भ्रमर – नाद – विवृद्ध-कोपम्।
ऐरावताभमिभ – मुद्धत – मापतन्तं
दृष्ट्वा भयं भवति नो भवदाश्रितानाम्॥ 38॥

भिन्नेभ – कुम्भ- गल – दुज्ज्वल-शोणिताक्त,
मुक्ता – फल- प्रकरभूषित – भूमि – भाग:।
बद्ध – क्रम: क्रम-गतं हरिणाधिपोऽपि,
नाक्रामति क्रम-युगाचल-संश्रितं ते॥ 39॥

कल्पान्त – काल – पवनोद्धत – वह्नि -कल्पं,
दावानलं ज्वलित-मुज्ज्वल – मुत्स्फुलिङ्गम्।
विश्वं जिघत्सुमिव सम्मुख – मापतन्तं,
त्वन्नाम-कीर्तन-जलं शमयत्यशेषम्॥ 40॥

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रक्तेक्षणं समद – कोकिल – कण्ठ-नीलम्,
क्रोधोद्धतं फणिन – मुत्फण – मापतन्तम्।
आक्रामति क्रम – युगेण निरस्त – शङ्कस्-
त्वन्नाम- नागदमनी हृदि यस्य पुंस:॥ 41॥

वल्गत् – तुरङ्ग – गज – गर्जित – भीमनाद-
माजौ बलं बलवता – मपि – भूपतीनाम्।
उद्यद् – दिवाकर – मयूख – शिखापविद्धं
त्वत्कीर्तनात्तम इवाशु भिदामुपैति॥ 42॥

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कुन्ताग्र-भिन्न – गज – शोणित – वारिवाह,
वेगावतार – तरणातुर – योध – भीमे।
युद्धे जयं विजित – दुर्जय – जेय – पक्षास्-
त्वत्पाद-पङ्कज-वनाश्रयिणो लभन्ते॥ 43॥

अम्भोनिधौ क्षुभित – भीषण – नक्र – चक्र-
पाठीन – पीठ-भय-दोल्वण – वाडवाग्नौ।
रङ्गत्तरङ्ग -शिखर- स्थित- यान – पात्रास्-
त्रासं विहाय भवत: स्मरणाद्-व्रजन्ति ॥ 44॥

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उद्भूत – भीषण – जलोदर – भार- भुग्ना:,
शोच्यां दशा-मुपगताश्-च्युत-जीविताशा:।
त्वत्पाद-पङ्कज-रजो – मृत – दिग्ध – देहा,
मर्त्या भवन्ति मकर-ध्वज-तुल्यरूपा:॥ 45॥

आपाद – कण्ठमुरु – शृङ्खल – वेष्टिताङ्गा,
गाढं-बृहन्-निगड-कोटि निघृष्ट – जङ्घा:।
त्वन्-नाम-मन्त्र- मनिशं मनुजा: स्मरन्त:,
सद्य: स्वयं विगत-बन्ध-भया भवन्ति॥ 46॥

मत्त-द्विपेन्द्र- मृग- राज – दवानलाहि-
संग्राम-वारिधि-महोदर – बन्ध -नोत्थम्।
तस्याशु नाश – मुपयाति भयं भियेव,
यस्तावकं स्तव-मिमं मतिमानधीते॥ 47॥

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स्तोत्र – स्रजं तव जिनेन्द्र गुणैर्निबद्धाम्,
भक्त्या मया रुचिर-वर्ण-विचित्र-पुष्पाम्।
धत्ते जनो य इह कण्ठ-गता-मजस्रं,
तं मानतुङ्ग-मवशा-समुपैति लक्ष्मी:॥ 48॥

भक्तामर स्तोत्र लिरिक्स हिंदी में

यदि आपके लिए भक्तामर स्तोत्र को संस्कृत में समझना मुष्किल है। तो यहाँ दर्शाया संपूर्ण स्तोत्र का हिंदी लिरिक्स पढ़ सकते है। आगे के विभाग में आसान समझ के लिए अर्थ भी बताया है।

भक्त अमर नत मुकुट सु-मणियों, की सु-प्रभा का जो भासक।
पाप रूप अति सघन तिमिर का, ज्ञान-दिवाकर-सा नाशक॥
भव-जल पतित जनों को जिसने, दिया आदि में अवलंबन।
उनके चरण-कमल को करते, सम्यक बारम्बार नमन ॥१॥

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सकल वाङ्मय तत्वबोध से, उद्भव पटुतर धी-धारी।
उसी इंद्र की स्तुति से है, वंदित जग-जन मन-हारी॥
अति आश्चर्य की स्तुति करता, उसी प्रथम जिनस्वामी की।
जगनामी सुखधामी तद्भव, शिवगामी अभिरामी की ॥२॥

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स्तुति को तैयार हुआ हूँ, मैं निर्बुद्धि छोड़ि के लाज।
विज्ञजनों से अर्चित है प्रभु! मंदबुद्धि की रखना लाज॥
जल में पड़े चंद्र मंडल को, बालक बिना कौन मतिमान।
सहसा उसे पकड़ने वाली, प्रबलेच्छा करता गतिमान ॥३॥

हे जिन! चंद्रकांत से बढ़कर, तव गुण विपुल अमल अति श्वेत।
कह न सके नर हे गुण के सागर! सुरगुरु के सम बुद्धि समेत॥
मक्र, नक्र चक्रादि जंतु युत, प्रलय पवन से बढ़ा अपार।
कौन भुजाओं से समुद्र के, हो सकता है परले पार ॥४॥

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वह मैं हूँ कुछ शक्ति न रखकर, भक्ति प्रेरणा से लाचार।
करता हूँ स्तुति प्रभु तेरी, जिसे न पौर्वापर्य विचार॥
निज शिशु की रक्षार्थ आत्मबल बिना विचारे क्या न मृगी?
जाती है मृगपति के आगे, प्रेम-रंग में हुई रंगी ॥५॥

अल्पश्रुत हूँ श्रृतवानों से, हास्य कराने का ही धाम।
करती है वाचाल मुझे प्रभु, भक्ति आपकी आठों याम॥
करती मधुर गान पिक मधु में, जग जन मन हर अति अभिराम।
उसमें हेतु सरस फल फूलों के, युत हरे-भरे तरु-आम ॥६॥

जिनवर की स्तुति करने से, चिर संचित भविजनो के पाप।
पलभर में भग जाते निश्चित, इधर-उधर अपने ही आप॥
सकल लोक में व्याप्त रात्रि का, भ्रमर सरीखा काला ध्वान्त।
प्रातः रवि की उग्र-किरण लख, हो जाता क्षण में प्राणांत ॥७॥

मैं मति-हीन-दीन प्रभु तेरी, शुरू करूँ स्तुति अघ-हान।
प्रभु-प्रभाव ही चित्त हरेगा, संतों का निश्चय से मान॥
जैसे कमल-पत्र पर जल कण, मोती कैसे आभावान।
दिखते हैं फिर छिपते हैं, असली मोती में हैं भगवान ॥८॥

दूर रहे स्रोत आपका, जो कि सर्वथा है निर्दोष।
पुण्य कथा ही किंतु आपकी, हर लेती है कल्मष-कोष॥
प्रभा प्रफुल्लित करती रहती, सर के कमलों को भरपूर।
फेंका करता सूर्य किरण को, आप रहा करता है दूर ॥९॥

त्रिभुवन तिंलक जगपति हे प्रभु ! सद्गुरुओं के हें गुरवर्य्य ।
सद्भक्तों को निजसम करते, इसमें नहीं अधिक आश्चर्य ॥
स्वाश्रित जन को निजसम करते, धनी लोग धन करनी से ।
नहीं करें तो उन्हें लाभ क्या? उन धनिकों की करनी से ॥१०॥

हे अमिनेष विलोकनीय प्रभु, तुम्हें देखकर परम पवित्र।
तौषित होते कभी नहीं हैं, नयन मानवों के अन्यत्र॥
चंद्र-किरण सम उज्ज्वल निर्मल, क्षीरोदधि का कर जलपान।
कालोदधि का खारा पानी, पीना चाहे कौन पुमान ॥११॥

जिन जितने जैसे अणुओं से, निर्मापित प्रभु तेरी देह।
थे उतने वैसे अणु जग में, शांत-रागमय निःसंदेह॥
हे त्रिभुवन के शिरोभाग के, अद्वितीय आभूषण रूप।
इसीलिए तो आप सरीखा, नहीं दूसरों का है रूप ॥१२॥

कहाँ आपका मुख अतिसुंदर, सुर-नर उरग नेत्र-हारी।
जिसने जीत लिए सब-जग के, जितने थे उपमाधारी॥
कहाँ कलंकी बंक चंद्रमा, रंक समान कीट-सा दीन।
जो पलाशसा फीका पड़ता, दिन में हो करके छवि-छीन ॥१३॥

तब गुण पूर्ण-शशांक का कांतिमय, कला-कलापों से बढ़ के।
तीन लोक में व्याप रहे हैं जो कि स्वच्छता में चढ़ के॥
विचरें चाहें जहाँ कि जिनको, जगन्नाथ का एकाधार।
कौन माई का जाया रखता, उन्हें रोकने का अधिकार ॥१४॥

मद की छकी अमर ललनाएँ, प्रभु के मन में तनिक विकार।
कर न सकीं आश्चर्य कौनसा, रह जाती है मन को मार॥
गिरि गिर जाते प्रलय पवन से तो फिर क्या वह मेरु शिखर।
हिल सकता है रंचमात्र भी, पाकर झंझावत प्रखर ॥१५॥

धूप न बत्ती तैल बिना ही, प्रकट दिखाते तीनों लोक।
गिरि के शिखर उड़ाने वाली, बुझा न सकती मारुत झोक॥
तिस पर सदा प्रकाशित रहते, गिनते नहीं कभी दिन-रात।
ऐसे अनुपम आप दीप हैं, स्वपर-प्रकाशक जग-विख्यात ॥१६॥

अस्त न होता कभी न जिसको, ग्रस पाता है राहु प्रबल।
एक साथ बतलाने वाला, तीन लोक का ज्ञान विमल॥
रुकता कभी न प्रभाव जिसका, बादल की आ करके ओट।
ऐसी गौरव-गरिमा वाले, आप अपूर्व दिवाकर कोट ॥१७॥

मोह महातम दलने वाला, सदा उदित रहने वाला।
राहु न बादल से दबता, पर सदा स्वच्छ रहने वाला॥
विश्व-प्रकाशक मुखसरोज तव, अधिक कांतिमय शांतिस्वरूप।
है अपूर्व जग का शशिमंडल, जगत शिरोमणि शिव का भूप ॥१८॥

नाथ आपका मुख जब करता, अंधकार का सत्यानाश।
तब दिन में रवि और रात्रि में, चंद्र बिंब का विफल प्रयास॥
धान्य-खेत जब धरती तल के, पके हुए हों अति अभिराम।
शोर मचाते जल को लादे, हुए घनों से तब क्या काम? ॥१९॥

जैसा शोभित होता प्रभु का, स्वपर-प्रकाशक उत्तम ज्ञान।
हरिहरादि देवों में वैसा, कभी नहीं हो सकता भान॥
अति ज्योतिर्मय महारतन का, जो महत्व देखा जाता।
क्या वह किरणाकुलित काँच में, अरे कभी लेखा जाता? ॥२०॥

हरिहरादि देवों का ही मैं, मानूँ उत्तम अवलोकन।
क्योंकि उन्हें देखने भर से, तुझसे तोषित होता मन॥
है परंतु क्या तुम्हें देखने से, हे स्वामिन मुझको लाभ।
जन्म-जन्म में भी न लुभा पाते, कोई यह मम अमिताभ ॥२१॥

सौ-सौ नारी सौ-सौ सुत को, जनती रहतीं सौ-सौ ठौर।
तुमसे सुत को जनने वाली, जननी महती क्या है और?॥
तारागण को सर्व दिशाएँ, धरें नहीं कोई खाली।
पूर्व दिशा ही पूर्ण प्रतापी, दिनपति को जनने वाली ॥२२॥

तुम को परम पुरुष मुनि मानें, विमल वर्ण रवि तमहारी।
तुम्हें प्राप्त कर मृत्युंजय के, बन जाते जन अधिकारी॥
तुम्हें छोड़कर अन्य न कोई, शिवपुर पथ बतलाता है।
किंतु विपर्यय मार्ग बताकर, भव-भव में भटकाता है ॥२३॥

तुम्हें आद्य अक्षय अनंत प्रभु, एकानेक तथा योगीश।
ब्रह्मा, ईश्वर या जगदीश्वर, विदित योग मुनिनाथ मुनीश॥
विमल ज्ञानमय या मकरध्वज, जगन्नाथ जगपति जगदीश।
इत्यादिक नामों कर मानें, संत निरंतर विभो निधीश ॥२४॥

ज्ञान पूज्य है, अमर आपका, इसीलिए कहलाते बुद्ध।
भुवनत्रय के सुख संवर्द्धक, अतः तुम्हीं शंकर हो शुद्ध॥
मोक्ष-मार्ग के आद्य प्रवर्तक, अतः विधाता कहें गणेश।
तुम सब अवनी पर पुरुषोत्तम, और कौन होगा अखिलेश ॥२५॥

तीन लोक के दुःख हरण, करने वाले है तुम्हें नमन।
भूमंडल के निर्मल-भूषण, आदि जिनेश्वर तुम्हें नमन॥
हे त्रिभुवन के अखिलेश्वर, हो तुमको बारम्बार नमन।
भव-सागर के शोषक-पोषक, भव्य जनों के तुम्हें नमन ॥२६॥

गुणसमूह एकत्रित होकर, तुझमें यदि पा चुके प्रवेश।
क्या आश्चर्य न मिल पाएँ हों, अन्य आश्रय उन्हें जिनेश॥
देव कहे जाने वालों से, आश्रित होकर गर्वित दोष।
तेरी ओर न झाँक सके वे, स्वप्नमात्र में हे गुण-दोष ॥२७॥

उन्नत तरु अशोक के आश्रित, निर्मल किरणोन्नत वाला।
रूप आपका दिखता सुंदर, तमहर मनहर छवि वाला॥
वितरण किरण निकर तमहारक, दिनकर धन के अधिक समीप।
नीलाचल पर्वत पर होकर, निरांजन करता ले दीप ॥२८॥

मणि-मुक्ता किरणों से चित्रित, अद्भुत शोभित सिंहासन।
कांतिमान्‌ कंचन-सा दिखता, जिस पर तब कमनीय वदन॥
उदयाचल के तुंग शिखर से, मानो सहस्त्र रश्मि वाला।
किरण-जाल फैलाकर निकला, हो करने को उजियाला ॥२९॥

ढुरते सुंदर चँवर विमल अति, नवल कुंद के पुष्प समान।
शोभा पाती देह आपकी, रौप्य धवल-सी आभावान॥
कनकाचल के तुंगृंग से, झर-झर झरता है निर्झर।
चंद्र-प्रभा सम उछल रही हो, मानो उसके ही तट पर ॥३०॥

चंद्र-प्रभा सम झल्लरियों से, मणि-मुक्तामय अति कमनीय।
दीप्तिमान्‌ शोभित होते हैं, सिर पर छत्रत्रय भवदीय॥
ऊपर रहकर सूर्य-रश्मि का, रोक रहे हैं प्रखर प्रताप।
मानो अघोषित करते हैं, त्रिभुवन के परमेश्वर आप ॥३१॥

ऊँचे स्वर से करने वाली, सर्वदिशाओं में गुंजन।
करने वाली तीन लोक के, जन-जन का शुभ-सम्मेलन॥
पीट रही है डंका-हो सत्‌ धर्म-राज की जय-जय।
इस प्रकार बज रही गगन में, भेरी तव यश की अक्षय ॥३२॥

कल्पवृक्ष के कुसुम मनोहर, पारिजात एवं मंदार।
गंधोदक की मंद वृष्टि, करते हैं प्रभुदित देव उदार॥
तथा साथ ही नभ से बहती, धीमी-धीमी मंद पवन।
पंक्ति बाँध कर बिखर रहे हों, मानो तेरे दिव्य-वचन ॥३३॥

तीन लोक की सुंदरता यदि, मूर्तिमान बनकर आवे।
तन-भामंडल की छवि लखकर, तब सन्मुख शरमा जावे॥
कोटिसूर्य के प्रताप सम, किंतु नहीं कुछ भी आताप।
जिसके द्वारा चंद्र सुशीतल, होता निष्प्रभ अपने आप ॥३४॥

मोक्ष-स्वर्ग के मार्ग प्रदर्शक, प्रभुवर तेरे दिव्य-वचन।
करा रहे हैं, ‘सत्यधर्म’ के अमर-तत्व का दिग्दर्शन॥
सुनकर जग के जीव वस्तुतः कर लेते अपना उद्धार।
इस प्रकार में परिवर्तित होते, निज-निज भाषा के अनुसार ॥३५॥

जगमगात नख जिसमें शोभें, जैसे नभ में चंद्रकिरण।
विकसित नूतन सरसीरूह सम, है प्रभु! तेरे विमल चरण॥
रखते जहाँ वहीं रचते हैं, स्वर्ण-कमल सुरदिव्य ललाम।
अभिनंदन के योग्य चरण तव, भक्ति रहे उनमें अभिराम ॥३६॥

धर्म-देशना के विधान में, था जिनवर का जो ऐश्वर्य।
वैसा क्या कुछ अन्य कु देवों, में भी दिखता है सौंदर्य॥
जो छवि घोर-तिमिर के नाशक, रवि में है देखी जाती।
वैसी ही क्या अतुल कांति, नक्षत्रों में लेखी जाती ॥३७॥

लोल कपोलों से झरती है, जहाँ निरंतर मद की धार।
होकर अति मदमत्त कि जिस पर, करते हैं भौंरे गुंजार॥
क्रोधासक्त हुआ यों हाथी, उद्धत ऐरावत सा काल।
देख भक्त छुटकारा पाते, पाकर तव आश्रय तत्काल ॥३८॥

क्षत-विक्षत कर दिए गजों के, जिसने उन्नत गंडस्थल।
कांतिमान्‌ गज-मुक्ताओं से, पाट दिया हो अवनीतल॥
जिन भक्तों को तेरे चरणों, के गिरि की हो उन्नत ओट।
ऐसा सिंह छलाँगे भर कर, क्या उस पर कर सकता चोट ॥३९॥

प्रलय काल की पवन उठाकर, जिसे बढ़ा देती सब ओर।
फिफें फुलिंगे ऊपर तिरछे, अंगारों का भी होवे जोर॥
भुवनत्रय को निगला चाहे, आती हुई अग्नि भभकार।
प्रभु के नाम-मंत्र जल से वह, बुझ जाती है उस ही बार ॥४०॥

कंठ कोकिला सा अति काला, क्रोधित हो फण किया विशाल।
लाल-लाल लोचन करके यदि, झपटें नाग महा विकराल॥
नाम रूप तव अहि- दमनी का, लिया जिन्होंने हो आश्रय।
पग रखकर निःशंक नाग पर, गमन करें वे नर निर्भय ॥४१॥

जहाँ अश्व की और गजों की, चीत्कार सुन पड़ती घोर।
शूरवीर नृप की सेनाएँ, रव करती हों चारों ओर।
वहाँ अकेला शक्तिहीन नर, जप कर सुंदर तेरा नाम।
सूर्य-तिमिर सम शूर-सैन्य का, कर देता है काम-तमाम ॥४२॥

रण में भालों से वेधित गज, तन से बहता रक्त अपार।
वीर लड़ाकू जहाँ आतुर हैं, रुधिर-नदी करने को पार॥
भक्त तुम्हारा हो निराश तहँ, लख अरिसेना दुर्जयरूप।
तव पादारविंद पा आश्रय, जय पाता उपहार-स्वरूप ॥४३॥

वह समुद्र कि जिसमें होवें, मच्छमगर एवं घड़ियाल
तूफाँ लेकर उठती होवें, भयकारी लहरें उत्ताल॥
भँवर-चक्र में फँसी हुई हो, बीचों बीच अगर जलयान।
छुटकारा पा जाते दुःख से, करने वाले तेरा ध्यान ॥४४॥

असहनीय उत्पन्न हुआ हो, विकट जलोदर पीड़ा भार।
जीने की आशा छोड़ी हो, देख दशा दयनीय अपार॥
ऐसे व्याकुल मानव पाकर, तेरी पद-रज संजीवन।
स्वास्थ्य-लाभ कर बनता उसका, कामदेव सा सुंदर तन ॥४५॥

लोह-श्रंखला से जकड़ी है, नख से शिख तक देह समस्त।
घुटने-जंघे छिले बेड़ियों से, अधीर जो हैं अतित्रस्त॥
भगवन ऐसे बंदीजन भी, तेरे नाम-मंत्र की जाप॥
जप कर गत-बंधन हो जाते, क्षण भर में अपने ही आप ॥४६॥

वृषभेश्वर के गुण के स्तवन का, करते निश-दिन जो चिंतन।
भय भी भयाकुलित हो उनसे, भग जाता है हे स्वामिन॥
कुंजर-समर सिंह-शोक-रुज, अहि दानावल कारागर।
इनके अतिभीषण दुःखों का, हो जाता क्षण में संहार ॥४७॥

हे प्रभु! तेरे गुणोद्यान की, क्यारी से चुन दिव्य- ललाम।
गूँथी विविध वर्ण सुमनों की, गुण-माला सुंदर अभिराम॥
श्रद्धा सहित भविकजन जो भी कंठाभरण बनाते हैं।
मानतुंग-सम निश्चित सुंदर, मोक्ष-लक्ष्मी पाते हैं ॥४८॥

भक्तामर स्तोत्र अर्थ सहित

भक्तामर प्रणत मौलिमणि प्रभाणा।
मुद्योतकं दलित पाप तमोवितानम् ॥
सम्यक् प्रणम्य जिन पादयुगं युगादा।
वालंबनं भवजले पततां जनानाम् ॥१॥

झुके हुए भक्त देवों के मुकुट जड़ित मणियों की प्रथा को प्रकाशित करने वाले, पापरूपी अंधकार के समूह को नष्ट करने वाले, कर्मयुग के प्रारम्भ में संसार समुन्द्र में डूबते हुए प्राणियों के लिये आलम्बन भूत जिनेन्द्रदेव के चरण युगल को मन वचन कार्य से प्रणाम करके उनकी स्तुति करूँगा।

यः संस्तुतः सकल वाङ्मय तत्वबोधा।
दुद्भूत बुद्धिपटुभिः सुरलोकनाथैः॥
स्तोत्रैर्जगत्त्रितय चित्त हरैरुदरैः।
स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम् ॥२॥

मैं (मानतुंग) भी सम्पूर्णश्रुतज्ञान से उत्पन्न हुई बुद्धि की कुशलता से तीन लोकों के मन को हरने वाले आदिनाथ जिनेन्द्र की स्तुति करूँगा।

बुद्ध्या विनाऽपि विबुधार्चित पादपीठ।
स्तोतुं समुद्यत मतिर्विगतत्रपोऽहम् ॥
बालं विहाय जलसंस्थितमिन्दु बिम्ब।
मन्यः क इच्छति जनः सहसा ग्रहीतुम् ॥३॥

हे जिनेन्द्र, जिनका सिंहासन देवों द्वारा पूजित है, मैं निर्लज्ज होकर तुम्हारी प्रशंसा करने के लिए तैयार हूँ क्योंकि जल में स्थित चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब को दूसरा कौन मनुष्य सहसा पकड़ने की इच्छा करेगा? अर्थात कोई नहीं है।

वक्तुं गुणान् गुणसमुद्र शशाङ्क्कान्तान्।
कस्ते क्षमः सुरगुरुप्रतिमोऽपि बुद्ध्या ॥
कल्पान्त काल् पवनोद्धत नक्रचक्रं।
को वा तरीतुमलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम् ॥४॥

हे गुणों के भंडार! ब्रहस्पति के सद्रश भी कौन व्यक्ति आपके चन्द्रमा के समान सुन्दर गुणों को बता सकता है? अर्थात कोई भी नहीं। या प्रलयकाल की वायु द्वारा प्रचण्ड मगरमच्छों का समूह, जिसमें ऐसे समुद्र पर तैरने के लिए कोई नहीं है।

सोऽहं तथापि तव भक्ति वशान्मुनीश।
कर्तुं स्तवं विगतशक्तिरपि प्रवृत्तः ॥
प्रीत्यऽऽत्मवीर्यमविचार्य मृगो मृगेन्द्रं।
नाभ्येति किं निजशिशोः परिपालनार्थम् ॥५॥

हे मुनीश! मैं भक्तिवश आपकी प्रशंसा करने को तैयार हूँ, हालांकि मैं शक्तिहीन हूँ। क्या हरिणि, अपनी शक्ति को नहीं सोचकर, प्यार से अपने शिशु को बचाने के लिए सिंह के सामने नहीं जाती? जाती हैं।

अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहासधाम्।
त्वद्भक्तिरेव मुखरीकुरुते बलान्माम् ॥
यत्कोकिलः किल मधौ मधुरं विरौति।
तच्चाम्र-चारु-कलिका-निकरैक-हेतु ॥६॥

विद्वानों की हँसी के पात्र, मुझे अल्पज्ञानी को आपकी भक्ति ही बोलने को विवश करती हैं. बसन्त ऋतु में कोयल के मधुर शब्दों का एकमात्र कारण निश्चय ही आम्र कलिका है।

त्वत्संस्तवेन भवसंतति सन्निबद्धं।
पापं क्षणात् क्षयमुपैति शरीर भाजाम् ॥
आक्रान्त लोकमलिनीलमशेषमाशु।
सूर्यांशुभिन्नमिव शार्वरमन्धकारम् ॥७॥

आपकी प्रशंसा से, प्राणियों के कई जन्मों से जुड़े पाप कर्म क्षण भर में नष्ट हो जाते हैं। जैसे रात का अंधेरा सूर्य की रोशनी से क्षण भर में मिट जाता है।

मत्वेति नाथ्! तव् संस्तवनं मयेद।
मारभ्यते तनुधियापि तव प्रभावात् ॥
चेतो हरिष्यति सतां नलिनीदलेषु।
मुक्ताफल द्युतिमुपैति ननूदबिन्दुः ॥८॥

हे स्वामी! ऐसा मानकर मैं भी आपका यह स्तवन प्रारंभ करता हूँ, जो आपके प्रभाव से सज्जनों के मन को हरेगा। पानी की एक बूँद कमलिनी के पत्तों को मोती की तरह सुंदर बनाती है।

आस्तां तव स्तवनमस्तसमस्त दोषं।
त्वत्संकथाऽपि जगतां दुरितानि हन्ति ॥
दूरे सहस्त्रकिरणः कुरुते प्रभैव।
पद्माकरेषु जलजानि विकाशभांजि ॥९॥

आपकी पवित्र कहानी प्राणियों के पापों को दूर करती है, क्योंकि वह सभी दोषों से मुक्त है। सूर्य की प्रकाश ही सरोवर में कमलों को जन्म देती है।

नात्यद् भूतं भुवन भुषण भूतनाथ।
भूतैर् गुणैर् भुवि भवन्तमभिष्टुवन्तः ॥
तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं वा।
भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति ॥१०॥

हे भगवान ब्रह्मांड! हे जीवों के पुत्र! इसमें अधिक आश्चर्य नहीं कि सत्यगुणों के द्वारा आपकी प्रशंसा करने वाले लोग आपके समान हो जाएँ। क्योंकि उस स्वामी का क्या उद्देश्य, जो अपने अधीनस्थ व्यक्ति को धन से अपने समान नहीं करता?

दृष्टवा भवन्तमनिमेष विलोकनीयं।
नान्यत्र तोषमुपयाति जनस्य चक्षुः ॥
पीत्वा पयः शशिकरद्युति दुग्ध सिन्धोः।
क्षारं जलं जलनिधेरसितुं क इच्छेत् ॥११॥

हे अभिमेष दर्शनीय प्रभो! आपके दर्शन के पश्चात् मनुष्यों के नेत्र अन्यत्र सन्तोष को प्राप्त नहीं होते। चन्द्रकीर्ति के समान निर्मल क्षीरसमुद्र के जल को पीकर कौन पुरुष समुद्र के खारे पानी को पीना चाहेगा? मतलब कोई नहीं ।

यैः शान्तरागरुचिभिः परमाणुभिस्तवं।
निर्मापितस्त्रिभुवनैक ललाम भूत ॥
तावन्त एव खलु तेऽप्यणवः पृथिव्यां।
यत्ते समानमपरं न हि रूपमस्ति ॥१२॥

हे त्रिभुवन के एकमात्र आभुषण, जिनेन्द्रदेव! रागरहित सुंदर परमाणुओं से आपकी रचना हुई। वे निश्चय ही उतने ही थे क्योंकि पृथ्वी पर आपके समान दूसरा रूप नहीं है।

वक्त्रं क्व ते सुरनरोरगनेत्रहारि।
निःशेष निर्जित जगत् त्रितयोपमानम् ॥
बिम्बं कलङ्क मलिनं क्व निशाकरस्य।
यद्वासरे भवति पांडुपलाशकल्पम् ॥१३॥

कृपया! तीनों जगत् की उपमाओं का विजेता, देव मनुष्य और धरणेन्द्र के नेत्रों को हरने वाला कहां आपका चेहरा? और चन्द्रमा का वह मण्डल कहां है, जो कलंक से भरा हुआ है? जो दिन में ढाक या पलाश के पत्ते की तरह फीका हो जाता।

सम्पूर्णमण्ङल शशाङ्ककलाकलाप्।
शुभ्रा गुणास्त्रिभुवनं तव लंघयन्ति ॥
ये संश्रितास् त्रिजगदीश्वर नाथमेकं।
कस्तान् निवारयति संचरतो यथेष्टम् ॥१४॥

तीनों लोको में आपके गुण पूर्ण चन्द्र की कलाओं के समान प्रकाशपूर्ण हैं, क्योंकि जो अद्वितीय त्रिजगत् के भी नाथ के आश्रित हैं। उन्हें अपनी इच्छा से चलते हुए कौन रोक सकता है? कोई भी नहीं।

चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशांगनाभिर्।
नीतं मनागपि मनो न विकार मार्गम् ॥
कल्पान्तकालमरुता चलिताचलेन।
किं मन्दराद्रिशिखिरं चलितं कदाचित् ॥१५॥

अगर आपका मन देवागंनाओं के द्वारा किंचित् भी विक्रति को प्राप्त नहीं कराया जा सका, तो इस विषय में आश्चर्य ही क्या है? पर्वतों को हिला देने वाली प्रलयकाल पवन के द्वारा क्या कभी मेरु का शिखर हिल सका है? नहीं हिला ।

निर्धूमवर्तिपवर्जित तैलपूरः।
कृत्स्नं जगत्त्रयमिदं प्रकटी करोषि ॥
गम्यो न जातु मरुतां चलिताचलानां।
दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ् जगत्प्रकाशः ॥१६॥

हे स्वामिन्! आप एक अद्भुत जगत् प्रकाशक दीपक हैं, धूम और बाती से रहित, तेल के बहाव के बिना भी इस संसार को प्रकट करने वाले, जिसे हवा भी कभी बुझा नहीं सकती।

नास्तं कादाचिदुपयासि न राहुगम्यः।
स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्जगन्ति ॥
नाम्भोधरोदर निरुद्धमहाप्रभावः।
सूर्यातिशायिमहिमासि मुनीन्द्र! लोके ॥१७॥

हे मुनीन्द्र! राहु आपको कभी नहीं घेरता, आपका महान तेज मेघ आपको कभी नहीं गिराता। आप एक साथ तीनों जगहों को जल्दी ही प्रकाशित कर देते हैं, इसलिए आप सूर्य से भी अधिक प्रसिद्ध हैं।

नित्योदयं दलितमोहमहान्धकारं।
गम्यं न राहुवदनस्य न वारिदानाम् ॥
विभ्राजते तव मुखाब्जमनल्प कान्ति।
विद्योतयज्जगदपूर्व शशाङ्कबिम्बम् ॥१८॥

तुम्हारा मुखकमल रूप जगत को प्रकाशित करता है, मोहरुपी अंधकार को दूर करता है, जिसे न तो राहु न ही मेघ आच्छादित कर सकते हैं।

किं शर्वरीषु शशिनाऽह्नि विवस्वता वा।
युष्मन्मुखेन्दु दलितेषु तमस्सु नाथ ॥
निष्मन्न शालिवनशालिनि जीव लोके।
कार्यं कियज्जलधरैर् जलभार नम्रैः ॥१९॥

हे स्वामिन्! जब चन्द्रमा, जो आपका मुख है, अंधकार को नष्ट करता है, तो रात्रि में चन्द्रमा और दिन में सूर्य का क्या उद्देश्य? पानी के भार से झुके हुए मेघों को पके हुए धान्य के खेतों से सुंदर धरती पर फिर क्या करना चाहिए?

ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशं।
नैवं तथा हरिहरादिषु नायकेषु ॥
तेजः स्फुरन्मणिषु याति यथा महत्वं।
नैवं तु काच शकले किरणाकुलेऽपि ॥२०॥

विष्णु, महेश और अन्य देवताओं का ज्ञान आप में जिस तरह प्रसन्न होता है, वैसा ही काँच के टुकड़े में प्रकाश की किरणों से भी नहीं होता।

मन्ये वरं हरि हरादय एव दृष्टा।
दृष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति ॥
किं वीक्षितेन भवता भुवि येन नान्यः।
कश्चिन्मनो हरति नाथ! भवान्तरेऽपि ॥२१॥

मैं विष्णु महादेव को सर्वश्रेष्ठ मानता हूँ, जिन्हें देखकर मन प्रसन्न होता है। लेकिन आपको देखने से क्या फायदा होता है? इसलिए जन्मान्तर में भी मन को कोई दूसरा देव नहीं हर सकता।

स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान्।
नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता ॥
सर्वा दिशो दधति भानि सहस्त्ररश्मिं।
प्राच्येव दिग् जनयति स्फुरदंशुजालं ॥२२॥

सैकड़ों स्त्रियाँ सैकड़ों पुत्रों को जन्म देती हैं, परन्तु आप जैसे पुत्र को दूसरी माँ नहीं दे सकी. नक्षत्र सभी दिशाओं को धारण करते हैं, परन्तु कान्तिमान् किरण समूह से युक्त सूर्य को पूर्व दिशा में जन्म देते हैं।

त्वामामनन्ति मुनयः परमं पुमांस।
मादित्यवर्णममलं तमसः परस्तात् ॥
त्वामेव सम्यगुपलभ्य जयंति मृत्युं।
नान्यः शिवः शिवपदस्य मुनीन्द्र! पन्थाः ॥२३॥

तपस्वीजन आपको सूर्य की तरह तेजस्वी, निर्मल और मोहान्धकार से परे रहने वाले परम पुरुष मानते हैं, हे मुनीन्द्र! वे आपको प्राप्त कर म्रत्यु जीतते हैं। मोक्षपद के लिए इसके अलावा कोई दूसरा बेहतर उपाय नहीं है।

त्वामव्ययं विभुमचिन्त्यमसंख्यमाद्यं।
ब्रह्माणमीश्वरम् अनंतमनंगकेतुम् ॥
योगीश्वरं विदितयोगमनेकमेकं।
ज्ञानस्वरूपममलं प्रवदन्ति सन्तः ॥२४॥

सज्जन लोग आपको शाश्वत, विभु, अचिन्त्य, असंख्य, आद्य, ब्रह्मा, ईश्वर, अनन्त, अनंगकेतु, योगीश्वर, विदितयोग, अनेक कहते हैं ।

बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चित बुद्धि बोधात्।
त्वं शंकरोऽसि भुवनत्रय शंकरत्वात् ॥
धाताऽसि धीर! शिवमार्ग विधेर्विधानात्।
व्यक्तं त्वमेव भगवन्! पुरुषोत्तमोऽसि ॥२५॥

आप बुद्ध हैं क्योंकि आप देव या विद्वानों द्वारा पूजित ज्ञान वाले हैं। आप ही शंकर हैं क्योंकि आप तीनों जगहों में शान्ति लाते हैं। धीर, आप मोक्षमार्ग की प्रक्रिया करने वाले हैं, इसलिए आप ही ब्रह्मा हैं। और हे देव! स्पष्ट रूप से आप ही लोगों में सर्वश्रेष्ठ या देव हैं।

तुभ्यं नमस्त्रिभुवनार्तिहराय नाथ।
तुभ्यं नमः क्षितितलामलभूषणाय ॥
तुभ्यं नमस्त्रिजगतः परमेश्वराय।
तुभ्यं नमो जिन! भवोदधि शोषणाय ॥२६॥

हे परमेश्वर! तीनों जगहों के दुःख को हरने वाले, प्रथ्वीतल के निर्मल आभूषण, तीनों जगहों के परमेश्वर और सृष्टि सागर को सुखाने वाले आपको नमस्कार।

को विस्मयोऽत्र यदि नाम गुणैरशेषैस्।
त्वं संश्रितो निरवकाशतया मुनीश! ॥
दोषैरूपात्त विविधाश्रय जातगर्वैः।
स्वप्नान्तरेऽपि न कदाचिदपीक्षितोऽसि ॥२७॥

हे मुनीश! अन्यत्र जगह न मिलने के कारण समस्त गुणों ने आपको आश्रय लिया हो, और अहंकार के दोषों ने आपको कभी सपने में भी नहीं देखा हो तो इसमें क्या आश्चर्य?

उच्चैरशोक तरुसंश्रितमुन्मयूख।
माभाति रूपममलं भवतो नितान्तम् ॥
स्पष्टोल्लसत्किरणमस्त तमोवितानं।
बिम्बं रवेरिव पयोधर पार्श्ववर्ति ॥२८॥

ऊँचे अशोक वृक्ष के नीचे स्थित आपका उज्ज्वल चेहरा, स्पष्ट रुप से शोभायमान किरणों से युक्त, अंधकार समूह के नाशक, मेघों के निकट सूर्य बिम्ब की तरह बहुत सुंदर है।

सिंहासने मणिमयूखशिखाविचित्रे।
विभ्राजते तव वपुः कनकावदातम् ॥
बिम्बं वियद्विलसदंशुलता वितानं।
तुंगोदयाद्रि शिरसीव सहस्त्ररश्मेः ॥२९॥

आपका सुवर्ण कि तरह उज्ज्वल शरीर, मणियों की किरण-ज्योति से सुशोभित सिंहासन पर, आकाश के उच्च शिखर पर किरण-रूप लताओं के समूह की तरह शोभायमान है।

कुन्दावदात चलचामर चारुशोभं।
विभ्राजते तव वपुः कलधौतकान्तम् ॥
उद्यच्छशांक शुचिनिर्झर वारिधार।
मुच्चैस्तटं सुर गिरेरिव शातकौम्भम् ॥३०॥

आपका स्वर्णिम शरीर, सुमेरुपर्वत, जिस पर चन्द्रमा के समान उज्ज्वल झरने के जल की धारा बह रही है, के स्वर्णिम ऊँचे तट की तरह सुंदर है, कुन्द के पुष्प के समान धवल चंवरों के द्वारा सुंदर है।

छत्रत्रयं तव विभाति शशांककान्त।
मुच्चैः स्थितं स्थगित भानुकर प्रतापम् ॥
मुक्ताफल प्रकरजाल विवृद्धशोभं।
प्रख्यापयत्त्रिजगतः परमेश्वरत्वम् ॥३१॥

आपके ऊपर स्थित तीन छत्र, मानो आपके तीन लोकों के स्वामित्व को प्रकट करते हुए शोभित हो रहे हैं। चन्द्रमा के समान सुंदर, सूर्य की रोशनी को रोकने वाले, तथा मोतियों के समूहों से बढ़ती हुई सुंदरता को धारण करने वाले।

गम्भीरतारवपूरित दिग्विभागस्।
त्रैलोक्यलोक शुभसंगम भूतिदक्षः ॥
सद्धर्मराजजयघोषण घोषकः सन्।
खे दुन्दुभिर्ध्वनति ते यशसः प्रवादी ॥३२॥

दुन्दुभि वाद्य आपके यश का गान करता हुआ आकाश में शब्द करता है। यह गम्भीर और उच्च शब्द से दिशाओं को गुञ्जायमान करता है। तीन लोकों के जीवों को शुभ विभूति देने में समर्थ है और जैन धर्म के स्वामी की जय घोषणा करता है।

मन्दार सुन्दरनमेरू सुपारिजात।
सन्तानकादिकुसुमोत्कर- वृष्टिरुद्धा ॥
गन्धोदबिन्दु शुभमन्द मरुत्प्रपाता।
दिव्या दिवः पतित ते वचसां ततिर्वा ॥३३॥

आपके वचनों की पंक्तियों की तरह आकाश से सुगंधित जल बिन्दुओं और मन्द सुगंधित वायु के साथ मन्दार, सुन्दर, नमेरु, पारिजात, सन्तानक आदि कल्पवृक्षों के पुष्प गिरते हैं।

शुम्भत्प्रभावलय भूरिविभा विभोस्ते।
लोकत्रये द्युतिमतां द्युतिमाक्षिपन्ती ॥
प्रोद्यद् दिवाकर निरन्तर भूरिसंख्या।
दीप्त्या जयत्यपि निशामपि सोम सौम्याम् ॥३४॥

हे ईश्वर! तीनों लोकों के कान्तिमान पदार्थों की प्रभा को तिरस्कृत करती हुई आपके मनोहर भामण्डल की विशाल कान्ति एक साथ उगते हुए कई सूर्यों की कान्ति से युक्त होकर चन्द्रमा से शोभित रात्रि को जीत रही है।

स्वर्गापवर्गगममार्ग विमार्गणेष्टः।
सद्धर्मतत्वकथनैक पटुस्त्रिलोक्याः ॥
दिव्यध्वनिर्भवति ते विशदार्थसत्व।
भाषास्वभाव परिणामगुणैः प्रयोज्यः ॥३५॥

आपकी दिव्यध्वनि, जो साधक को स्वर्ग और मोक्षमार्ग की खोज में मदद करती है। तीन लोकों के लोगों को सही धर्म बताने में सक्षम है, और इसका अर्थ स्पष्ट सभी भाषाओं में बदल सकता है।

उन्निद्रहेम नवपंकज पुंजकान्ती।
पर्युल्लसन्नखमयूख शिखाभिरामौ ॥
पादौ पदानि तव यत्र जिनेन्द्र! धत्तः।
पद्मानि तत्र विबुधाः परिकल्पयन्ति ॥३६॥

पुष्पित नव स्वर्ण कमलों की तरह सुंदर आपके चरण जहाँ पड़ते हैं, वहाँ देवगण स्वर्ण कमल बनाते हैं। यथा तव विभूतिरभूज्जिनेन्द्र, धर्मोपदेशनविधौ तथा परस्य।

यादृक् प्रभा दिनकृतः प्रहतान्धकारा।
तादृक् कुतो ग्रहगणस्य विकाशिनोऽपि ॥३७॥

हे प्रभु, इस प्रकार धर्मोपदेश के कार्य में जैसा आपका ऐश्वर्य था वैसा अन्य किसी का नही देखा। अंधकार को नष्ट करने वाली जैसी प्रभा सूर्य की होती है वैसी अन्य प्रकाशमान भी ग्रहों की कैसे हो सकती है?

श्च्योतन्मदाविलविलोल कपोलमूल।
मत्तभ्रमद् भ्रमरनाद विवृद्धकोपम् ॥
ऐरावताभमिभमुद्धतमापतन्तं।
दृष्ट्वा भयं भवति नो भवदाश्रितानाम् ॥३८॥

सामने आते हुए ऐरावत की तरह उद्दण्ड हाथी को देखकर भी भय नहीं होता। जिसमें झरते हुए मद जल से गण्डस्थल मलीन हो गया है। और काले रंग के भौरे अपने गुजंन से क्रोध बढ़ा रहे हैं।

भिन्नेभ कुम्भ गलदुज्जवल शोणिताक्त।
मुक्ताफल प्रकर भूषित भुमिभागः ॥
बद्धक्रमः क्रमगतं हरिणाधिपोऽपि।
नाक्रामति क्रमयुगाचलसंश्रितं ते ॥३९॥

सिंह, जिसने हाथी का गण्डस्थल विदीर्ण कर, उज्ज्वल और रक्तमिश्रित गजमुक्ताओं से पृथ्वी तल को विभूषित कर दिया है। जो छलांग मारने के लिये तैयार है, ऐसे व्यक्ति पर भी हमला नहीं करता जिसने आपके चरण युगल रुप पर्वत का आश्रय ले रखा है।

कल्पांतकाल पवनोद्धत वह्निकल्पं।
दावानलं ज्वलितमुज्जवलमुत्स्फुलिंगम् ॥
विश्वं जिघत्सुमिव सम्मुखमापतन्तं।
त्वन्नामकीर्तनजलं शमयत्यशेषम् ॥४०॥

आपका नाम यशोगानरुपी जल को पूर्ण रूप से बुझा देता है, जो प्रलयकाल की वायु से उद्धत होता है, प्रचण्ड अग्नि की तरह प्रज्वलित होता है, और उज्ज्वल चिनगारियों से भरता है। संसार को भक्षण करने की इच्छा रखने वाले की तरह सामने आती हुई वन की अग्नि को बुझा देता है।

रक्तेक्षणं समदकोकिल कण्ठनीलं।
क्रोधोद्धतं फणिनमुत्फणमापतन्तम् ॥
आक्रामति क्रमयुगेन निरस्तशंकस्।
त्वन्नाम नागदमनी हृदि यस्य पुंसः ॥४१॥

जिस व्यक्ति के ह्रदय में नामरुपी-नागदौन नामक औषध है, वह लाल-लाल आँखो वाले, मदयुक्त कोयल के कण्ठ की तरह काले, क्रोधित और ऊपर को फण उठाये हुए, सामने आते हुए सर्प को निश्शंक होकर दोनों पैरों से लाँघता है।

वल्गत्तुरंग गजगर्जित भीमनाद।
माजौ बलं बलवतामपि भूपतिनाम्! ॥
उद्यद्दिवाकर मयूख शिखापविद्धं।
त्वत्- कीर्तनात् तम इवाशु भिदामुपैति ॥४२॥

युद्धक्षेत्र में उछलते हुए घोड़े और हाथियों के शोर से उत्पन्न भयंकर शोर से युक्त पराक्रमी राजाओं की भी सेना शीघ्र ही ध्वस्त हो जाती है, जैसे सूर्य की रोशनी से वेधे हुए अन्धकार की तरह।

कुन्ताग्रभिन्नगज शोणितवारिवाह।
वेगावतार तरणातुरयोध भीमे ॥
युद्धे जयं विजितदुर्जयजेयपक्षास्।
त्वत्पाद पंकजवनाश्रयिणो लभन्ते ॥४३॥

हे भगवान, आपके मार्ग पर चलने वाले लोग कमल वन का सहारा लेते हैं। भालों की नोकों से छेद गए हाथियों का रक्त जल में बहता है, और तैरने के लिये उत्सुक योद्धाओं से भयंकर युद्ध में शत्रु पक्ष को पराजित करते हैं।

अम्भौनिधौ क्षुभितभीषणनक्रचक्र।
पाठीन पीठभयदोल्बणवाडवाग्नौ ॥
रंगत्तरंग शिखरस्थित यानपात्रास्।
त्रासं विहाय भवतःस्मरणाद् व्रजन्ति ॥४४॥

भयानक समुद्री लहरों के शिखर पर एक जहाज है, जिसमें भयानक मगरमच्छों के समूह और मछलियों द्वारा भयभीत करने वाले दावानल हैं, जो आपके स्मरण मात्र से भयभीत हो जाते हैं।

उद्भूतभीषणजलोदर भारभुग्नाः।
शोच्यां दशामुपगताश्च्युतजीविताशाः ॥
त्वत्पादपंकज रजोऽमृतदिग्धदेहा।
मर्त्या भवन्ति मकरध्वजतुल्यरूपाः ॥४५॥

जिन लोगों को भीषण जलोदर रोग के बोझ से झुका दिया गया है और जीवन की कोई आशा नहीं है। वे ऐसे मनुष्य बन जाते हैं जो आपके चरण कमलों की रज रुप अम्रत से लिप्त शरीर होते हुए कामदेव के समान होते हैं।

आपाद कण्ठमुरूश्रृंखल वेष्टितांगा।
गाढं बृहन्निगडकोटिनिघृष्टजंघाः ॥
त्वन्नाममंत्रमनिशं मनुजाः स्मरन्तः।
सद्यः स्वयं विगत बन्धभया भवन्ति ॥४६॥

जिनके शरीर पैर से लेकर कण्ठ पर्यन्त बड़ी-बड़ी सांकलों से जकड़ा हुआ है और विकट सघन बेड़ियों से जिनकी जंघायें बहुत छिल गईं हैं। वे निरंतर आपके नाममंत्र को स्मरण करते हुए शीघ्र ही बंधन से मुक्त हो जाते हैं।

मत्तद्विपेन्द्र मृगराज दवानलाहि।
संग्राम वारिधि महोदर बन्धनोत्थम् ॥
तस्याशु नाशमुपयाति भयं भियेव।
यस्तावकं स्तवमिमं मतिमानधीते ॥४७॥

यदि कोई बुद्धिमान व्यक्ति आपके इस स्तवन को पढ़ता है, तो वह मत्त हाथी, सिंह, दवानल, युद्ध, समुद्र जलोदर रोग और बंधन आदि से भयभीत होकर शीघ्र ही नष्ट हो जाएगा।

स्तोत्रस्त्रजं तव जिनेन्द्र! गुणैर्निबद्धां।
भक्त्या मया विविधवर्णविचित्रपुष्पाम् ॥
धत्ते जनो य इह कंठगतामजस्रं।
तं मानतुंगमवशा समुपैति लक्ष्मीः ॥४८॥

जिनेन्द्र देव! इस जगत् में जो लोग मेरे द्वारा भक्तिपूर्वक (ओज, प्रसाद, माधुर्य आदि) गुणों से रची गई नाना अक्षर रुप, रंग बिरंगे फूलों से युक्त आपकी स्तुति रुप माला को कंठाग्र करता है, उस उन्नत सम्मान वाले व्यक्ति को अथवा आचार्य मानतुंग को स्वर्ग मोक्षादि की विभूति अवश्य मिलेगी।

सवाल जवाब (FAQ)

यहाँ भक्तामर स्तोत्र से जुड़े जरुरी प्रश्नो के उत्तर बताये है।

(1) भक्तामर स्तोत्र कब पढ़ना चाहिए?

हिन्दू महीने अनुसार इसे श्रावण, भादवा, कार्तिक, पौष, अगहन या माघ माह में पढ़ना लाभदायी है। बेहतर लाभ प्राप्ति के लिए स्त्रोत्र को सुबह सूर्योदय के समय पढ़ना चाहिए।

(2) भक्तामर स्तोत्र के लेखक कौन है?

प्राचीन जानकारी के आधार पर कह सकते है की इस स्तोत्र को आचार्य मानतुंग सुरीजी ने लिखा था।

(3) क्या हम भक्तामर स्तोत्र का जाप कर सकते हैं?

बिलकुल आप विशेष स्तोत्र भक्तामर का जाप पूरी श्रद्धा के साथ करे। इससे आप एक ईश्वरीय शक्ति के साथ जुड़ा महसूस करेंगे।

आशा करता हु भक्तामर स्तोत्र सम्बंधित अच्छी जानकारी देने में सफल रहा हु। मिलते है अपनी नेक्स्ट पोस्ट में तब तक टेक केयर।

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By Karanveer

में करनवीर पिछले 8 साल से Content Writing के कार्य द्वारा जुड़ा हूँ। मुझे ऑनलाइन शॉपिंग, प्रोडक्ट रिव्यु और प्राइस लिस्ट की जानकारी लिखना अच्छा लगता है।

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