श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन को सुनाये गए उपदेश के आधार पर भगवत गीता की रचना हुई थी। जिसमे 18 अध्याय और 700 संस्कृत श्लोक समाविष्ट थे। उन्ही 700 में से यहाँ 101 प्रसिद्ध Bhagavad Geeta Shlok को भावार्थ सहित समझाया है।
इन 101 श्लोक द्वारा निम्नलिखित 5 फायदे अवश्य देखने मिलते है।
- व्यक्ति की आद्यात्मिक प्रगति होती है।
- श्री कृष्ण को हम अधिक समझ पाते है।
- जीवन में अधिकांश अच्छे काम होते है।
- हम बुरे कर्म से खुद को दूर रखते है।
- जटिल समस्या आसानी से सुलझाते है।
विशेष : कहा जाता है जिसने भगवद गीता को समझ लिया उसने जीवन को समझ लिया। इस सही समझ की शुरुआत गीता बुक में दिए श्लोक से ही होती है।
101 Bhagavad Geeta Shlok In Sanskrit To Hindi
यहाँ बेहतरीन रिसर्च के आधार पर ज्यादा ज्ञान देने वाले श्लोको को पहले दर्शाया है। साथ ही हर संस्कृत श्लोक का सरल Sanskrit To Hindi Meaning भी बताया है।
ध्यान दीजिये : सरलता के लिए यहाँ 10 विभाग है और प्रत्येक विभाग में 10 प्रसिद्ध श्लोक दिए है।
(1) Bhagavad Geeta Karma And Dharma Shlok
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥
भावार्थ : श्री कृष्ण समझाते है की केवल कर्म करना ही हमारे हाथ में है। कर्म द्वारा मिलने वाले फल हमारे हाथ में नहीं है। इसलिए निस्वार्थ हो कर सिर्फ अच्छे कर्म करने पर ही ध्यान देना चाहिए।
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
अर्थात : जब धर्म खतरे में आता है उस पर हानि पहुँचती है और अधर्म की वृद्धि होने लगती है। तब श्री कृष्ण अपने महा स्वरुप की रचना द्वारा आगे आते है।
नैनं छिद्रन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक: ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत ॥
भावार्थ : श्रीमद भगवत गीता अनुसार आत्मा को कोई शस्त्र काट नहीं सकता, नाही किसी प्रकार की आग उसे जला सकती है। कोई पानी, हवा या आपत्ति भी आत्मा को मार नहीं सकती।
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः॥
अर्थात : जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक मनाता है, न कामना करता है तथा जो शुभ और अशुभ कर्मों का त्यागी है। ऐसा भक्तियुक्त पुरुष भगवान श्री कृष्ण को प्रिय है
क्रोधाद्भवति संमोह: संमोहात्स्मृतिविभ्रम:।
स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥
भावार्थ : क्रोध से मनुष्य मर जाता है, यानी मूढ़ हो जाता है, जिसके परिणामस्वरूप स्मृति भ्रमित हो जाती है। स्मृति-भ्रम से मनुष्य की बुद्धि नष्ट हो जाती है, और बुद्धि नष्ट होने पर व्यक्ति खुद को नष्टता की तरफ ले जाता है।
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥
अर्थात : विषयों वस्तुओं के बारे में सोचते रहने से मनुष्य उनके प्रति आसक्ति विकसित करता है। इससे उनमें कामना, यानी इच्छा पैदा होती है, और कामनाओं को रोका जाता है तो क्रोध आता है।
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥
भावार्थ : एक अच्छा इंसान अपनी अच्छाई द्वारा जो काम करता है, वह उसके वातावरण में फैलता रहता है। उसे देख कर आगे भी लोग उसी की तरह कार्य करने की कोशिश करते है।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥
अर्थात : श्री कृष्णजी साधुओं की रक्षा करने, दुष्कर्मियों का विनाश करने और धर्म की स्थापना के लिए हर युग में नया अवतार लेते है। ताकि दुनिया में अच्छे लोग और धर्म को कायम रखा जा सके।
हतो वा प्राप्यसि स्वर्गम्, जित्वा वा भोक्ष्यसे महिम्।
तस्मात् उत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चय:॥
भावार्थ : एक योद्धा यदि युद्ध में वीरगति प्राप्त करता है तो उसे प्रभु द्वारा स्वर्ग मिलता है। योद्धा अगर विजय प्राप्त करता है तो उसे धरती पर सुख मिलता है। इसलिए बिना डरे, निश्चित हो कर युद्ध करो।
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः॥
अर्थात : कोई भी मनुष्य किसी भी काल में थोड़े वक़्त के लिए भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता। क्यों की प्रकृति की रचना अनुसार प्रत्येक मनुष्य हर क्षण में कर्म करने के लिए बाध्य होता है।
(2) Best Bhagavad Geeta Shlok For Life
श्रद्धावान्ल्लभते ज्ञानं तत्पर: संयतेन्द्रिय:।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥
भावार्थ : श्रद्धा रखने वाले लोग, अपनी इन्द्रियों पर संयम रखने वाले लोग, साधनपारायण हो अपनी तत्परता से ज्ञान लेते हैं। फिर ज्ञान मिल जाने पर जल्द ही भगवत्प्राप्तिरूप परम शान्ति को प्राप्त करते हैं।
कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन् गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे।
अनन्त देवेश जगन्निवास त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत्॥
अर्थात : हे महान आत्मा, वे महानतम को, यहाँ तक कि ब्रह्म के प्रवर्तक को भी क्यों नहीं झुकाते? हे देवताओं के असीमित भगवान, आप ब्रह्मांड के निवास स्थान हैं।
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्रात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन:॥
भावार्थ : हमें खुद को ऊपर उठाना चाहिए न कि खुद को नीचे गिराना चाहिए। हम स्वयं ही स्वयं का खास मित्र होते है और स्वयं ही स्वयं का शत्रु भी बन सकते है।
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते॥
अर्थात : जो कर्म इंद्रियों को नियंत्रित करता है और भगवान के प्रति सचेत रहता है। जिसका मन इन्द्रियों के विषयों से मोहित हो जाता है, वह मिथ्या आचरण वाला होता है।
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मन:॥
भावार्थ : श्री कृष्ण कहते है जो भक्त मेरे लिये प्रेम से पत्र, पुष्प, फल और जल अर्पण करता है। उस शुद्ध बुद्धि भक्त का प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ पत्र-पुष्पादि मैं सगुण रूप से प्रकट होकर प्यार सहित स्वीकार करता हूँ।
न कर्मणामनारंभान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।
न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति॥
अर्थात : कर्म न करने पर किसी मनुष्य को अकर्मण्यता प्राप्त नहीं होती। न ही वह अपने त्याग से पूर्णता प्राप्त कर लेता है।
यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च य: ।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो य: स च मे प्रिय:॥
भावार्थ : जिस मनुष्य द्वारा किसी को कष्ट नहीं पहुँचता, नाही कोई नुकसान होता है। जो सुख-दुख तथा भय चिंता में भी समभाव रहता है, ऐसा मनुष्य मुझे अत्यंत प्रिय है।
यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्।
असम्मूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते॥
अर्थात : भगवान श्री कृष्ण अनुसार वह जो मुझ ब्रह्माण्ड के परमेश्वर को जन्म-जन्मान्तर से जानता है। मनुष्यों में जो मोहग्रस्त नहीं है, वह सभी पापों से मुक्त हो जाता है।
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:॥
भावार्थ : श्री कृष्ण कहते है सभी धर्मों को त्याग दो और केवल मेरी शरण में आओ। मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त कर दूंगा, शोक मत करो ना घबराओ।
अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः॥
कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्॥
अर्थात : भोजन से प्राणी उत्पन्न होते हैं, और वर्षा से भोजन उत्पन्न होता है। बलिदान से वर्षा होती है और बलिदान कर्म का स्रोत है। जान लें कि कर्म परम सत्य का उत्पाद है और यह ब्रह्म-अक्षर का उत्पाद है। इसलिए सर्वज्ञ परम सत्य यज्ञ में शाश्वत रूप से स्थापित है।
(3) Bhagavad Geeta Shlok In Sanskrit To Hindi
एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः।
सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः ॥
भावार्थ : यदि कोई व्यक्ति तत्त्व से जानता है कि मेरी इस परमैश्वर्यरूप विभूति और योगशक्ति को भगवान की माया है और सब कुछ भगवान की माया है, तो वह निश्चित रूप से भक्तियोग से युक्त हो जाता है।
बुद्धिर्ज्ञानमसम्मोहः क्षमा सत्यं दमः शमः।
सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च॥
अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः।
भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधा ॥
अर्थात : बुद्धि, ज्ञान, अपरिग्रह, क्षमा, सत्य, संयम और शांति। सुख, दुःख, अस्तित्व, अभाव, भय और अभय भी। अहिंसा, समता, संतोष, तपस्या, दान, यश और अपकीर्ति। सभी प्राणियों की नाना प्रकार की भावनाएँ मुझसे ही उत्पन्न होती हैं।
विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पंडिता: समदर्शिन:॥
भावार्थ : ज्ञान और विनम्रता से संपन्न एक ब्राह्मण, एक गाय और एक हाथी। विद्वान मनुष्य कुत्तों और बिल्लियों के प्रति समान रूप से प्रवृत्त होते हैं।
यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते।
सर्वसङ्कल्पसन्न्यासी योगारूढ़स्तदोच्यते ॥
अर्थात : जब ग्यानी मनुष्य वह इन्द्रिय विषयों से और कर्मों से आसक्त नहीं होता। जिसने सभी भौतिक इच्छाओं का त्याग कर दिया है और योग प्राप्त कर लिया है, उसे योगी कहा जाता है।
अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते।
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञित ॥
भावार्थ : भगवान ने कहा कि सर्वोच्च अक्षर “ब्रह्म” है, अपना स्वरूप अर्थात जीवात्मा “अध्यात्म” है। और भूतों का भाव पैदा करने वाला त्याग “कर्म” है।
यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते॥
अर्थात : जो आत्ममुग्ध और आत्मसंतुष्ट है वही असली मनुष्य है। दूसरी तरफ जो मनुष्य अपने आप में ही संतुष्ट है, उसके पास करने को कुछ नहीं है।
तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम्।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा ॥
भावार्थ : जो दुःखरूप संसार के संयोग से रहित है तथा जिसका नाम योग है, वह जानना चाहिए। वह योग धैर्य और उत्साह से करना चाहिए, अर्थात् न थके बिना।
प्रकृतेर्गुणसम्मूढ़ाः सज्जन्ते गुणकर्मसु।
तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत्॥
अर्थात : प्रकृति के गुणों से बहुत मोहित होकर मनुष्य अपने गुणों और कर्मों पर निर्भर रहते हैं। इसलिए उन्हें पूरी तरह से नहीं समझने वाले मूर्खों को पूरी तरह से जानने वाला ज्ञानी विचलित नहीं होगा।
नाश्चर्यमिदं विश्वं न किंचिदिति निश्चयी।
निर्वासनः स्फूर्तिमात्रो न किंचिदिव शाम्यति॥
भावार्थ : गीता ज्ञान अनुसार यह ब्रह्माण्ड कुछ भी नहीं है, इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। ऐसा लगता है कि निर्वासन के सिर्फ कंपन से कोई संबंध नहीं है।
एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्वर।
द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम॥
अर्थात : हे भगवान, इस प्रकार यह वैसा ही है जैसा आपने अपने बारे में कहा है। हे परम पुरुष, मैं आपके दिव्य स्वरूप को देखना चाहता हूँ।
(4) Top Bhagavad Geeta Shlok By Shri Krishna
नाहं देहो न मे देहो बोधोऽहमिति निश्चयी।
कैवल्यं इव संप्राप्तो न स्मरत्यकृतं कृतम्॥
भावार्थ : मैं शरीर नहीं हूं, न ही मेरा शरीर है, बल्कि मैं एक धारणा हूं। मुक्ति प्राप्त करने के बाद उसे याद नहीं रहता कि उसने क्या किया था।
आपदः संपदः काले दैवादेवेति निश्चयी।
तृप्तः स्वस्थेन्द्रियो नित्यं न वान्छति न शोचति॥
अर्थात : विपत्ति और सम्पत्ति निश्चय ही समय पर प्रारब्ध के कारण होती है। इन्द्रियों के स्वस्थ रहने से वह सदैव संतुष्ट रहता है, न तो इच्छा करता है और न ही शोक प्राप्त करता है।
चिन्तया जायते दुःखं नान्यथेहेति निश्चयी।
तया हीनः सुखी शान्तः सर्वत्र गलितस्पृहः॥
भावार्थ : अधिकांश दुःख चिंता से ही उत्पन्न होते हैं, किसी अन्य कारण से नहीं। यह बात जानने वाला व्यक्ति, चिंता से दूर होकर सुखी, शांत और संपूर्ण इच्छाओं से मुक्त हो जाता है।
यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं याति देहभृत्।
तदोत्तमविदां लोकानमलान्प्रतिपद्यते॥
अर्थात : जब मनुष्य में सतोगुण विकसित होता है, तो देहधारी आत्मा का विनाश हो जाता है। तब वह परम ज्ञानियों की निष्कलंक दुनिया को प्राप्त करता है।
सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन्प्रकाश उपजायते।
ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवृद्धं सत्त्वमित्युत॥
भावार्थ : मनुष्य रूपी शरीर में सभी द्वारों से प्रकाश उत्पन्न होता है। जब ज्ञान विकसित होता है तो उसे सत्त्व कहा जाता है। उस दौरान सत्वगुण का प्रमाण बढ़ता है।
मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः।
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः सा उच्यते॥
अर्थात : जो व्यक्ति मान और अपमान में समान है, मित्र और शत्रु में समान है। वह जो सभी आरंभों का त्याग करता है, गुण एंव अवगुण को समझता है वह गुणवान है।
कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्त्विकं निर्मलं फलम्।
रजसस्तु फलं दुःखमज्ञानं तमसः फलम्॥
भावार्थ : ऐसा कहा जाता है कि अच्छे कर्मों का शुद्ध फल सतोगुण में होता है। राजस का फल दुख है और तामस का फल अज्ञान होता है।
न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते॥
अर्थात : ईश्वर संसार में न तो कर्ता बनाता है और न ही कर्म करता है। कर्म के फल का मिलन नहीं होता, प्रकृति अपना सही कर्म करती है।
यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्यौगैरपि गम्यते।
एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति॥
भावार्थ : कर्मयोगी भी ज्ञानयोगी की तरह परमधाम प्राप्त करते हैं। यही कारण है कि जो व्यक्ति ज्ञानयोग और कर्मयोग को फलरूप में एक रूप में देखता है, वह वास्तविक व्यक्ति है।
नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः॥
अर्थात : परमेश्वर सर्वव्यापी है और वह सिर्फ शुभ या पाप कर्मों को स्वीकार नहीं करता है, क्योंकि ज्ञान अज्ञान से ढँका हुआ है, जिससे हर मूर्ख व्यक्ति मोहित हो जाता है।
(5) Geeta Shlok In Sanskrit Meaning Hindi
तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः।
गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः॥
भावार्थ : तत्परायण पुरुष ज्ञान द्वारा पापरहित होकर अपुनरावृत्ति को परमगति को प्राप्त होते हैं, जो मन, बुद्धि और सच्चिदानन्दघन परमात्मा में निरंतर एकीभाव से रहते हैं।
लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः।
छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः॥
अर्थात : जिनके सब पाप नष्ट हो गए हैं, जिनके सब संशय ज्ञान द्वारा निवृत्त हो गए हैं। जो प्राणियों के हित में सोचता हैं और जिनका जीता हुआ मन निश्चलभाव से परमात्मा में स्थित है, वह ब्रह्मवेत्ता पुरुष शांत ब्रह्म को पाते हैं।
शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात्।
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः॥
भावार्थ : जो इस संसार में सहन करने में सक्षम है वह पिछले शरीर से मुक्त हो जाता है। जो काम और क्रोध से उत्पन्न होने वाली गति में स्थिर है, वही सुखी है।
कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन्।
केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया॥
अर्थात : प्रभु निरंतर आपका चिंतन करते हुए, मैं एक योगी आपको कैसे जान सकता हूँ? हे भगवान, क्या और किन प्राणियों में आप मेरे ध्यान में आते हैं?
स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम।
भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते॥
भावार्थ : श्री कृष्ण के लिए हे पुरुषश्रेष्ठ, आप स्वयं को स्वयं के रूप में जानते हैं। हे प्राणियों के निर्माता, प्राणियों के भगवान, देवताओं के भगवान, ब्रह्मांड के भगवान।
वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः।
इंद्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना॥
अर्थात : कृष्ण भगवान कहते है वेदों में मैं सामवेद हूं, देवताओं में मैं वसाव हूं। मैं इंद्रियों का मन हूं और मैं प्राणियों की चेतना भी हूं।
अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च॥
भावार्थ : मैं स्वयं गुडाकेश हूं, जो सभी प्राणियों के हृदय में निवास करता हूं। मैं विश्व के समस्त प्राणियों का आदि, मध्य और अंत भी हूँ।
रुद्राणां शङ्करश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम्।
वसूनां पावकश्चास्मि मेरुः शिखरिणामहम्।।
अर्थात : ज्ञान पर प्रकाश डालते हुए कहा रुद्रों में मैं भगवान शिव हूं और यक्ष राक्षसों में मैं धन का स्वामी हूं। साथ ही मैं वसुओं में अग्नि और शिखरों में मेरु कहलाता हूँ।
सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन।
अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम्॥
भावार्थ : श्री कृष्ण ने कहा हे अर्जुन, मैं सृष्टि का आदि, अंत और मध्य हूं। मैं आत्मा का विज्ञान हूं, विज्ञान का तर्क हूं, और वाक्प्रचार भी हूं।
पवनः पवतामस्मि रामः शस्त्रभृतामहम्।
झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जाह्नवी॥
अर्थात : मैं पवित्र करने वालों में वायु और शस्त्रधारियों में श्री राम हूँ तथा मछलियों में मगर हूँ और नदियों में श्री भागीरथी गंगाजी हूँ।
(6) Best Shloks About War And Relation
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः ।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय ॥
भावार्थ : वे धर्म के युद्धक्षेत्र और कुरूक्षेत्र में लड़ने के लिए उत्सुक होकर एकत्रित हुए। फिर कहा हे संजय, बताओ मेरे लोगों और पांडवों ने क्या किया?
यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः ।
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत् ॥
अर्थात : यदि मुझ शस्त्र रहित एवं सामना न करने वाले को शस्त्र हाथ में लिए हुए धृतराष्ट्र के पुत्र रण में मार डालें तो वह मारना भी मेरे लिए अधिक कल्याणकारक होगा॥
अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम् ।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः ॥
भावार्थ : अफ़सोस, हम बहुत बड़ा पाप करने पर आमादा हैं! राज्य के सुख के लालच में वे अपने रिश्तेदारों को मारने के लिए तैयार थे।
संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च ।
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः ॥
अर्थात : कुल का नाश करने वालों का संकरण ही नरक का एकमात्र मार्ग है। उनके पितर नीचे गिर जाते हैं और उनका तर्पण और जल देने का अनुष्ठान लुप्त हो जाता है।
दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसंकरकारकैः ।
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः ॥
भावार्थ : ये दोष कुल के विनाश और जातियों के संकरण का कारण बनते हैं। जाति और परिवार की सनातन धार्मिक व्यवस्था नष्ट हो जाती है
कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः ।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत ॥
अर्थात : जब एक परिवार नष्ट हो जाता है तो परिवार के सनातन रीति-रिवाज नष्ट हो जाते हैं। जब धार्मिक सिद्धांत नष्ट हो जाते हैं, तो अधर्म पूरे परिवार पर हावी हो जाता है।
अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः ।
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकरः ॥
भावार्थ : हे कृष्ण, अधर्म के आक्रमण से परिवार की स्त्रियाँ प्रदूषित हो जाती हैं। हे वर्ष्णि पुत्र, जब स्त्रियाँ भ्रष्ट होती हैं, तो जातियों का मिश्रण पैदा होता है।
तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान् ।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव ॥
अर्थात : इन्ही कारणों से धृतराष्ट्र के पुत्रों और अपने रिश्तेदारों को मारना हमारा कर्तव्य नहीं है। हे माधव, हम अपने ही लोगों को मारकर कैसे खुश रह सकते हैं?
यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः ।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् ॥
कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम् ।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ॥
भावार्थ : हालाँकि ये लोग देखते नहीं, फिर भी उनके मन पर लालच हावी हो जाता है। परिवार को नष्ट करना और मित्र को धोखा देना पाप है, हम पाप से विमुख होना कैसे नहीं जानते? हे जनार्दन, जो वंश के नाश से होने वाले अनिष्ट को देखते हैं
एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन ।
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते ॥
अर्थात : हे मधुसूदन, मैं इन लोगों को मारना नहीं चाहता, भले ही वे मुझे मार डालें। तीनों लोकों पर शासन करने के लिए फिर पृथ्वी का क्या उपयोग?
(7) Veer Arjun Shlok In Bhagavad Geeta
निहत्य धार्तराष्ट्रान्न का प्रीतिः स्याज्जनार्दन ।
पापमेवाश्रयेदस्मान् हत्वैतानाततायिनः ॥
भावार्थ : हे जनार्दन, धृतराष्ट्र को मारने में क्या आनंद हो सकता है? जो हम पर आक्रमण कर रहे हैं उन्हें मारना ही पाप सामान लग रहा है।
येषामर्थे काङक्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च ।
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ॥
अर्थात : जिनके लिए हमने राज्य, सुख और भोग की कामना की है। सही अर्थ में ये वे राजा हैं जिन्होंने युद्ध में अपना जीवन और धन त्याग दिया था।
न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च ।
किं नो राज्येन गोविंद किं भोगैर्जीवितेन वा ॥
भावार्थ : हे कृष्ण, मुझे विजय की इच्छा नहीं है, न ही मुझे राज्य या सुख की इच्छा है। हे गोविंद, बिना लोक कल्याण हमारे राज्य, सुख या जीवन का क्या उपयोग है?
दृष्टेवमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् ॥
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति ।
वेपथुश्च शरीरे में रोमहर्षश्च जायते ॥
अर्थात : अर्जुन ने कहा, “हे कृष्ण! मेरे अंग शिथिल हो रहे हैं, मेरा मुख सूखा जा रहा है, मेरे शरीर में कम्पन और रोमांच हो रहा है जब मैं युद्धक्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इस स्वजनसमुदाय को देख रहा हूँ।”
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ।
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ॥
भावार्थ : अर्जुन अपनी मनोव्यथा बताते हुए कहते है हे केशव, मैं अवसरों के विपरीत देखता हूँ। मैं युद्ध में अपने संबंधियों को मारने में कोई भलाई नहीं देखता।
तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान् बन्धूनवस्थितान् ॥
कृपया परयाविष्टो विषीदत्रिदमब्रवीत् ।
अर्थात : अर्जुन ने वहां खड़े अपने सभी रिश्तेदारों एंव लोगो की ओर देखा, अत्यंत करुणा से अभिभूत होकर उदास त्रिदेव इस प्रकार बोले।
योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः ।
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः ॥
भावार्थ : मैं इन लोगों को देख रहा हूं जो यहां एक साथ लड़ते हुए आए हैं। वे लोग युद्ध में दुष्ट धृतराष्ट्र को प्रसन्न करना चाहते थे।
एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम् ॥
भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम् ।
उवाच पार्थ पश्यैतान् समवेतान् कुरूनिति ॥
अर्थात : हे धृतराष्ट्र! संजय ने कहा। अर्जुन ने बताया कि महाराज श्रीकृष्ण ने दोनों सेनाओं के बीच में भीष्म और द्रोणाचार्य के सामने और सभी राजाओं के सामने उत्तम रथ खड़ा कर कहा, हे पार्थ! युद्ध के लिए जुटे हुए इन कौरवों को देखो।
अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान् कपिध्वजः ।
प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः ॥
हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ॥
भावार्थ : हे राजस्थ ! तब कपिध्वज अर्जुन ने हृषीकेश श्रीकृष्ण महाराज से कहा, “हे अच्युत! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा कीजिए”, और मोर्चा बाँधकर डटे हुए धृतराष्ट्र-संबंधियों को देखकर धनुष उठाया।
यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान् ।
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे ॥
अर्थात : जब तक मैं इन लोगों को लड़ने के लिए तैयार खड़ा देखता हूँ। युद्ध की इस तैयारी में मुझे किससे लड़ना चाहिए? इस तरह अर्जुन ने अपनी बात बताई।
(8) Yuddha Shloka In Bhagavad Geeta Book
काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः ।
धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः ॥
रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते ।
सौभद्रश्च महाबाहुः शंखान्दध्मुः पृथक्पृथक् ॥
भावार्थ : हे राजा, हर एक ने अपने अलग-अलग स्थानों से शंख बजाए। ये शंख थे काशिराज, महारथी शिखण्डी और धृष्टद्युम्न, राजा विराट और अजेय सात्यकि, राजा द्रुपद और द्रौपदी के पाँचों पुत्र और बड़ी भुजावाले सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु के।
स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत् ।
नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन् ॥
अर्थात : वह ध्वनि धृतराष्ट्र के पुत्रों के हृदय को विदीर्ण कर गई। जिस कारण प्रभाव में आकाश और पृथ्वी पर कोलाहलपूर्ण शब्द गूंज उठा।
पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जयः ।
पौण्ड्रं दध्मौ महाशंख भीमकर्मा वृकोदरः ॥
भावार्थ : श्रीकृष्ण महाराज ने पाञ्चजन्य नामक, अर्जुन ने देवदत्त नामक और भयानक कर्मवाले भीमसेन ने पौण्ड्र नामक महाशंख को बजाया।
अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ।
नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ ॥
अर्थात : युद्ध में कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनन्तविजय नामक और नकुल तथा सहदेव ने सुघोष और मणिपुष्पक नामक शंख बजाए।
ततः शंखाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः ।
सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत् ॥
भावार्थ : फिर शंख, ढोल, पणव, नाक और गोमुका बजने लगे। अचानक राक्षसों ने उस पर आक्रमण कर दिया और कोलाहलपूर्ण ध्वनि उत्पन्न हुई।
ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ ।
माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शंखौ प्रदध्मतुः ॥
अर्थात : फिर वे सफेद घोड़ों से जुते हुए विशाल रथ पर सवार हुए माधव श्री कृष्ण और पांडव अर्जुन ने अपने दिव्य शंख बजाए।
अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम् ।
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम् ॥
भावार्थ : भीष्म पितामह द्वारा संरक्षित हमारी सेना अपर्याप्त थी, दूसरी ओर भीम द्वारा रक्षित इन राजाओं की सेना पर्याप्त है।
तस्य सञ्जनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः ।
सिंहनादं विनद्योच्चैः शंख दध्मो प्रतापवान् ॥
अर्थात : सिंह की दहाड़ के समान गरजते हुए कौरवों में सबसे बड़े और प्रतापी पितामह भीष्म ने शंख बजाकर दुर्योधन के हृदय को प्रसन्न कर दिया।
अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम ।
नायका मम सैन्यस्य सञ्ज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते ॥
भावार्थ : हे ब्राह्मणश्रेष्ठ, कृपया उन लोगों की बात सुनें जो हमसे भिन्न हैं। अब मैं आपकी जानकारी के लिए अपनी सेना के नेताओं का वर्णन करूँगा
भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिञ्जयः ।
अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च ॥
अर्थात : श्रीमद गीता पुस्तक अनुसार आप भीष्म, कर्ण, कृपा और समितिजय हैं। उनके नाम में अश्वत्थामा, विकर्ण और सौमदत्ती शामिल थे।
(9) Importance Of Education Vidhya Shloks
पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम् ।
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ॥
भावार्थ : बड़ी आवाज के साथ कहा हे आचार्य! द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न, आपके बुद्धिमान शिष्य ने व्यूहाकार खड़ी की हुई पाण्डुपुत्रों की इस बड़ी सेना को देखो।
अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि ।
युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः ॥
धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान् ।
पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङवः ॥
युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान् ।
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः ॥
अर्थात : इस युद्ध में भीम और अर्जुन के समान महान धनुर्धर वीर पुरुष मौजूद हैं। युयुधान विराट और द्रुपद महारथी धृष्टकेतु चेकितान और काशी के शक्तिशाली राजा पुरुजित कुन्तिभोज और शैब्य सबसे अग्रणी व्यक्ति थे। महाबली युधामन्यु और उत्तमौजा शक्तिशाली योद्धा थे सौभद्र और द्रौपदी के पुत्र सभी महारथी थे।
न चोरहार्यं न च राजहार्यंन भ्रातृभाज्यं न च भारकारी ।
व्यये कृते वर्धते एव नित्यं विद्याधनं सर्वधन प्रधानम् ॥
भावार्थ : विद्यारूपी धन कोई चोर चुरा नहीं सकता था, न कोई राजा भी। न कोई भाई उस पर साझीदार बन सकता था, न ही वह बोझ बन सकता था। ज्ञान का धन, जो सभी धनों में प्रमुख है, खर्च करने पर सदैव बढ़ता रहता है।
सुखार्थिनः कुतोविद्या नास्ति विद्यार्थिनः सुखम् ।
सुखार्थी वा त्यजेद् विद्यां विद्यार्थी वा त्यजेत् सुखम् ॥
अर्थात : जो लोग सुख चाहते हैं उनके लिए ज्ञान कहाँ है? जो लोग ज्ञान चाहते हैं उनके लिए कोई सुख नहीं है। जो सुख चाहता है उसे ज्ञान छोड़ देना चाहिए और जो ज्ञान चाहता है उसे सुख छोड़ देना चाहिए।
ज्ञातिभि र्वण्टयते नैव चोरेणापि न नीयते ।
दाने नैव क्षयं याति विद्यारत्नं महाधनम् ॥
भावार्थ : विद्या का धन रिश्तेदारों द्वारा नहीं लूटा जा सकता या चोरों द्वारा नहीं ले जाया जा सकता। दान से ज्ञान रूपी रत्न और महान धन कभी नष्ट नहीं होते।
नास्ति विद्यासमो बन्धुर्नास्ति विद्यासमः सुहृत् ।
नास्ति विद्यासमं वित्तं नास्ति विद्यासमं सुखम् ॥
अर्थात : ज्ञान के समान कोई मित्र नहीं है और ज्ञान के समान कोई बंधू नहीं है। ज्ञान के समान कोई धन नहीं है, ज्ञान के समान कोई सुख नहीं है। कुल मिला कर आदर्श व्यक्ति के जीवन में ज्ञान का स्थान सर्वोपरी है।
विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्नगुप्तं धनम्
विद्या भोगकरी यशः सुखकरी विद्या गुरूणां गुरुः ।
विद्या बन्धुजनो विदेशगमने विद्या परं दैवतम् विद्या
राजसु पूज्यते न हि धनं विद्याविहीनः पशुः ॥
भावार्थ : विद्या गुप्त धन है, जो मनुष्य का विशिष्ट रुप है। वह भोजन देनेवाली, सफल होनेवाली और सुख देनेवाली है । शिक्षा शिक्षकों का गुरु है और विदेश में लोगों का बंधु है। विद्या एक बहुत बड़ी देवता है, विद्या धन से अधिक महत्वपूर्ण है। पशुओ को यह समझ नहीं आती, पर हम मनुष्य के लिए यह विशेष है।
सर्वद्रव्येषु विद्यैव द्रव्यमाहुरनुत्तमम् ।
अहार्यत्वादनर्ध्यत्वादक्षयत्वाच्च सर्वदा ॥
अर्थात : सभी वस्तुओं में ज्ञान को सर्वोत्तम वस्तु कहा गया है। क्योंकि यह अखाद्य, नष्ट न होने वाला और सस्ता है। इसलिए यह सदैव सुरक्षित और बेहतरीन रहता है।
रूपयौवनसंपन्ना विशाल कुलसम्भवाः ।
विद्याहीना न शोभन्ते निर्गन्धा इव किंशुकाः ॥
भावार्थ : सच में वे सौंदर्य और यौवन से संपन्न थे और एक बड़े परिवार से थे। ज्ञान के बिना वे सुगंधहीन कमलों के समान सुन्दर नहीं हो सकते थे।
अलसस्य कुतो विद्या अविद्यस्य कुतो धनम् ।
अधनस्य कुतो मित्रममित्रस्य कुतः सुखम् ॥
अर्थात : गीता का विशेष उपदेश है की आलसी के लिए ज्ञान कहां है, और अज्ञानी के लिए धन कहां है? कंगाल का मित्र कहां है, और शत्रु का सुख कहां है?
(10) Bhagavad Geeta Book Gyaan Shlok
विद्या ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रताम्।
पात्रत्वाद्धनमाप्नोति धनाद्धर्मं ततः सुखम्॥
भावार्थ : ज्ञान विनम्रता देता है और विनम्रता से व्यक्ति सुपात्रता की ओर जाता है। सुपात्र होने से उसे धन की प्राप्ति होती है और धन से धर्म और फिर सुख की प्राप्ति होती है।
विद्याभ्यास स्तपो ज्ञानमिन्द्रियाणां च संयमः ।
अहिंसा गुरुसेवा च निःश्रेयसकरं परम् ॥
अर्थात : गीता में लिखा है ज्ञान का अभ्यास, तप, ज्ञान और इंद्रियों का संयम है। अहिंसा और आध्यात्मिक गुरु की सेवा सर्वोच्च भलाई प्राप्त करने का श्रेष्ठ साधन है
क्षणशः कणशश्चैव विद्यामर्थं च साधयेत् ।
क्षणे नष्टे कुतो विद्या कणे नष्टे कुतो धनम् ॥
भावार्थ : क्षण-क्षण और कण-कण में ज्ञान और अर्थ प्राप्त करना चाहिए। जब ज्ञान क्षण भर में नष्ट हो जाता है, तो धन का क्या लाभ जब एक दाना भी नष्ट हो जाता है?
दानानां च समस्तानां चत्वार्येतानि भूतले ।
श्रेष्ठानि कन्यागोभूमिविद्या दानानि सर्वदा ॥
अर्थात : गीता उपदेश अनुसार पृथ्वी पर मौजूद सभी दानों में कन्यादान, गोदान, भूमिदान, और विद्यादान सर्वश्रेष्ठ है।
नास्ति विद्या समं चक्षु नास्ति सत्य समं तप:।
नास्ति राग समं दुखं नास्ति त्याग समं सुखं॥
भावार्थ : आँख के समान कोई ज्ञान नहीं है, तपस्या के समान कोई सत्य नहीं है। दुःख के समान कोई राग नहीं है; सुख के समान कोई त्याग नहीं है।
विद्या नाम नरस्य कीर्तिरतुला भाग्यक्षये चाश्रयो धेनुः
कामदुधा रतिश्च विरहे नेत्रं तृतीयं च सा ।
सत्कारायतनं कुलस्य महिमा रत्नैर्विना भूषणम्
तस्मादन्यमुपेक्ष्य सर्वविषयं विद्याधिकारं कुरु ॥
अर्थात : विद्या सर्वोच्च कीर्ति है; वह भाग्य का नाश होने पर आश्रय देती है। कामधेनु है, विरह में रति समान है, तीसरा नेत्र है, सत्कार का मंदिर है, कुल-महिमा है, बिना रत्नों के आभूषण है। इसलिए, अन्य सब विषयों से अलग होकर विद्या का अधिकारी बनना चाहिए।
अर्थातुराणां न सुखं न निद्रा कामातुराणां न भयं न लज्जा ।
विद्यातुराणां न सुखं न निद्रा क्षुधातुराणां न रुचि न बेला ॥
भावार्थ : कामातुर को भय और लज्जा नहीं होती, अर्थातुर को सुख और निद्रा नहीं होती। विद्यातुर को सुख और निद्रा मिलते हैं, जबकि भूख से पीड़ित व्यक्ति को समय या दिलचस्पी नहीं रहती।
गुरु शुश्रूषया विद्या पुष्कलेन् धनेन वा।
अथ वा विद्यया विद्या चतुर्थो न उपलभ्यते॥
अर्थात : विद्या को गुरु की सेवा, पर्याप्त धन या विद्या के आदान-प्रदान से प्राप्त किया जा सकता है। इसके अलावा ज्ञान प्राप्त करने का कोई चौथा उपाय नहीं है।
पठतो नास्ति मूर्खत्वं अपनो नास्ति पातकम् ।
मौनिनः कलहो नास्ति न भयं चास्ति जाग्रतः ॥
भावार्थ : इसे पढ़ने में कोई मूर्खता नहीं है, और स्वयं में कोई पाप नहीं है। जब कोई चुप रहता है तो कोई झगड़ा नहीं होता और जब कोई जागता है तो कोई डर नहीं होता।
मातेव रक्षति पितेव हिते नियुंक्ते कान्तेव
चापि रमयत्यपनीय खेदम् ।
लक्ष्मीं तनोति वितनोति च दिक्षु कीर्तिम्
किं किं न साधयति कल्पलतेव विद्या ॥
अर्थात : विद्या माता की तरह बचाव करती है, पिता की तरह मदद करती है, पत्नी की तरह थकान दूर करके मन को ठीक करती है, सौंदर्य लाती है और चारों ओर कीर्ति फैलाती है। वास्तव में, कल्पवृक्ष की तरह यह विद्या क्या सिद्ध नहीं करती?
विद्याविनयोपेतो हरति न चेतांसि कस्य मनुजस्य ।
कांचनमणिसंयोगो नो जनयति कस्य लोचनानन्दम् ॥
भावार्थ : प्रश्नार्थ भाव में कहते हुए ज्ञान और विनय से किसका मन मोहित नहीं होता? सोने और रत्नों के मेल से किसकी आँखें प्रसन्न नहीं हो सकतीं?
श्रीमद भगवत गीता के सभी श्लोको का सार
जैसा ही हम जानते है भगवद गीता किताब में कुल 700 श्लोक है। यदि इन सभी श्लोको का एक सामान्य सार बनाया जाये की यह श्लोक हमें क्या सिखाते है? तो वह कुछ निचे बताई जानकारी अनुसार बनता है।
भगवद् गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को आध्यात्मिक ज्ञान और जीवन के मूल सिद्धांतों का ज्ञान दिया है। कर्मयोग, भक्तियोग और ज्ञानयोगों के माध्यम से यह उपदेश दिया गया था।
श्रीकृष्ण ने कर्मयोग में कर्म करने का महत्व बताया है। जिसमे फल की उम्मीद किए बिना अच्छा काम करते रहना चाहिए। भक्तियोग में भगवान की आराधना और भक्ति का मार्ग बताया है। जिसमे खास बात यह है की ईश्वर को समर्पित जीवन जीने से मोक्ष मिल सकता है।
ज्ञानयोग में आत्मज्ञान प्राप्त करके ईश्वर को जानने और उसमें लीन होने का तरीका दर्शाया है। इसके लिए आपको गुरु से आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। इस प्रकार भगवद् गीता कहती है कि ईश्वर को पाने के लिए पूरा जीवन समर्पित कर सकते है। किताब हमें आध्यात्मिक जीवन जीने के लिए प्रेरित करती है।
किताब में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दुनिया की व्यर्थ चिंताओं से छुटकारा पाने और कर्तव्यों का पालन करने के लिए भी कहा था। उनका कहना था कि हमें भय और लोभ से मुक्त होकर अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए।
श्रीकृष्ण ने अहंकार को सबसे बड़ा शत्रु बताया है और इसे त्यागने की सलाह दी थी। उनका कहना था कि ईश्वर में पूरी तरह से आस्था रखने से ही हम जीवन में आने वाली सभी चुनौतियों को पार कर सकते हैं।
भगवद् गीता ज्ञानयोग, भक्तियोग और कर्मयोग का मूल है। इसमें हर व्यक्ति के लिए आध्यात्मिक विकास का रास्ता दिखाया गया है। यह ग्रंथ मानव जीवन के लिए महत्वपूर्ण एंव उपयोगी है।
Original Shrimad Bhagavad Geeta Book
यदि आप संपूर्ण 700 श्लोक और उनके अर्थ के बारे में पूरा पढ़ना चाहते है। तो ऑनलाइन मिल रही ओरिजिनल भगवद गीता यथारूप बुक खरीद लेनी चाहिए। इस किताब को इंग्लिश में Bhagavad Geeta As It Is कहा जाता है।
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सवाल जवाब (FAQ)
यहाँ भगवत गीता से सम्बंधित जरुरी प्रश्नो का उत्तर बताया है।
(1) भगवत गीता का मुख्य श्लोक क्या है?
धर्म ग्रंथ भगवद गीता में बताये अधिकांश सभी श्लोक महत्वपूर्ण है। लेकिन जो सबसे ज्यादा प्रचलित है वह निम्नलिखित श्लोक है।
“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥”
(2) गीता का प्रथम श्लोक कौन सा है?
गीता ज्ञान की शुरुआत या प्रथम श्लोक निचे बताये श्लोक से होती है
“धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय॥”
(3) भगवद गीता में कुल कितने श्लोक है?
संपूर्ण भगवद गीता में कुल 18 अध्याय और उनमे 700 श्लोक शामिल है।
(4) श्रीमद भगवद गीता बुक किसने लिखी थी?
इस महाकाव्य ग्रंथ को आज से 6000 साल पहले लेखक वेद व्यास जी द्वारा लिखा गया था।
(5) श्री कृष्णा ने कितनी देर में गीता सुनाई थी?
महाभारत युद्ध की स्थिति में श्री कृष्णा ने वीर अर्जुन को मात्र 45 मिनट में संपूर्ण भगवद गीता सुनाई थी। साथ ही भगवान ने अपने शिष्य को उसका सार भी समझाया था।
आशा करता हु भगवत गीता के 101 प्रसिद्ध श्लोक के बारे में अच्छी जानकारी दे पाया हु। इस महत्वपूर्ण पोस्ट को अपने सभी दोस्तों के साथ जरूर शेयर करे।